Wednesday, May 11, 2011

माया का फैलता मायावी जाल. .. अब किसानो पर

ग्रेटर नोएडा के नजदीक भट्टा-पारसौल गांव में किसानों और प्रशासन के बीच हुए खूनी संघर्ष ने एक बार फिर भूमि-अधिग्रहण की नीति पर सवालिया निशान खड़ा किया है। किसानों को मुआवजे के बदले मौत देने की यह रवायत नई नहीं है। कुछ समय पहले अलीगढ़ और मथुरा में भी ऐसी ही झड़पें हुई थीं। पुराने हादसों से सबक लेना तो दूर, सरकार ने किसानों की मांगों पर गौर फरमाना भी जरूरी नहीं समझा। किसान 17 जनवरी से यमुना एक्सप्रेस-वे के विरोध में धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। किसानों की मौत के बाद सारे राजनीतिक दल घड़ियाली आंसू बहाते हुए किसान हितैषी होने का दावा करते हैं, लेकिन जमीन अधिग्रहण की सुस्पष्ट योजना किसी के पास नहीं है। यमुना एक्सप्रेस-वे और गंगा एक्सप्रेस-वे मायावती सरकार की महत्वाकांक्षी योजनाएं हैं।ऐसा लगता है कि मायावती सरकार ने बिल्डरों, रीयल इस्टेट कंपनियों और देशी-विदेशी बड़ी कंपनियों के हक में उत्तर प्रदेश में किसानों के खिलाफ एक तरह से युद्ध सा छेड दिया है. सीधे-सीधे सरकार की अगुवाई में बड़े पैमाने पर किसानों की जमीन लूटी जा रही है. कहीं यमुना एक्सप्रेस-वे के नाम से और कहीं गंगा एक्सप्रेस-वे के नाम पर. यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि जिस गंगा-यमुना के किनारे एक पूरी सभ्यता-संस्कृति विकसित हुई और उसके उपजाऊ मैदानों में किसानों ने कड़ी मेहनत से लाखों-करोड़ों का पेट भरा, उन्हीं किसानों और उनके साथ इस पूरी सभ्यता को उजाड़ने का अभियान चल रहा है. यमुना एक्सप्रेस-वे के तहत नोएडा से आगरा के बीच 165 किलोमीटर लंबी आठ लेन की सड़क बनाई जा रही है। इस योजना के लिए गौतमबुद्ध नगर, बुलंदशहर, अलीगढ़, महामाया नगर, मथुरा और आगरा जिलों के करीब 335 गांवों में तकरीबन 1,500 हेक्टेयर जमीन अधिगृहीत की जा चुकी है। यमुना एक्सप्रेस-वे पर सड़क के दोनों ओर होटल, शॉपिंग मॉल, पेट्रोल पंप और औद्योगिक गलियारा बनाने की बात कही जा रही है। दिक्कत यहीं से शुरू होती है। जरूरत से ज्यादा जमीन का अधिग्रहण किया जाता है और सड़क बनने से पहले होटल व रिहायशी कॉलोनियां खड़ी कर दी जाती हैं। सवाल उठता है कि उद्योगों के लिए जमीन खरीदते समय सरकारें उनके एजेंट की तरह व्यवहार क्यों करती हैं। होना तो यह चाहिए कि उद्योग सीधे किसान से बाजार भाव पर जमीन खरीदे, मगर सवा सौ साल पुराने अंगरेजी कानून के सहारे जनहित की आड़ में औने-पौने दाम में किसानों की जमीन अधिगृहीत की जाती है। किसान अगर अपनी जमीन का बाजार भाव मांग रहे हैं और प्रस्तावित इलाकों में विकसित होने वाली सुविधाओं में प्राथमिकता दिए जाने की मांग कर रहे हैं, तो इसमें गलत क्या है?विडंबना देखिए, यमुना एक्सप्रेस-वे से विस्थापित होने वाले 50 हजार से ज्यादा किसानों के भविष्य का कोई खाका सरकार या संबंधित कंपनी के पास नहीं है, लेकिन विकास के दावे लगातार किए जा रहे हैं।यमुना-दोआब के जिस इलाके में चमचमाती सड़कें बिछाने की योजना बनाई गई है, वह बेहद उपजाऊ इलाका है। गन्ना, गेहूं, आलू और दालों की पैदावार के लिए मशहूर इस इलाके को औद्योगिक कॉरिडोर में तबदील करने की बड़ी कीमत खाद्य संकट के रूप में चुकानी पड़ सकती है। तकनीकी और प्रबंधकीय शिक्षा से विहीन किसानों को इन प्रस्तावित कारखानों में नौकरी मिल पाएगी, यह बताने की जरूरत नहीं है। आखिर बुंदेलखंड और तराई इलाकों में औद्योगिक इकाइयां क्यों नहीं लगाई जाती हैं या अनुपयोगी जगह का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता है? मिसाल के तौर पर रायबरेली, गोरखपुर और जौनपुर में पहले से स्वीकृत औद्योगिक परिसर वीरान पड़े हैं। आलम यह है कि सरकार को दिल्ली के नजदीक नोएडा से आगे कुछ दिखाई ही नहीं देता। कौड़ियों के भाव जमीन लेकर उस पर बड़ी कंपनियों के रीएल्टी प्रोजेक्ट खड़े करने के गोरखधंधे में नेता, अफसर और उद्योगपति, सभी शामिल हैं।कई राज्यों में किसानों और प्रशासन के बीच संघर्ष के बाद केंद्र सरकार ने जमीन अधिग्रहण कानून में बदलाव का वायदा किया था, लेकिन अब तक उस दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई है। टप्पल और ग्रेटर नोएडा की घटनाएं सरकार के लिए भावी संकट की आकाशवाणी हैं और अगर समय रहते इस दोषपूर्ण नीति को नहीं बदला गया, तो किसान और हाशिये पर चले जाएंगे।पिछले हफ्ते आई एशियाई विकास बैंक की रपट देश में खाद्य संकट की ओर इशारा कर रही है, वहीं सरकारें कृषि भूमि पर पूंजीपतियों के लिए आवासीय कॉलोनियां बनाने की होड़ में लगी हैं। बेहतर होगा कि सरकार उद्योग जगत का पक्षकार बनने के बजाय किसानों और उद्योगपतियों को सीधे संवाद का अवसर मुहैया करवाए। बेशक किसानों के पास पूंजीपतियों की माफिक नेताओं के लिए पैसों की पोटली नहीं है, लेकिन चुनावी मौसम में उनकी नाराजगी किसी भी सरकार की जड़ें हिला सकती है।

4 comments:

तरुण भारतीय said...

आपका कहना सही है .किसानो के हितों कि बात आती है तो सभी दल केवल घडियाली आंसू ही बहाते है ....उनके पास कोई स्पष्ट नीति नही है.......एक तरह से ये सरकारे केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करती है ...इनको किसानो के हितों से कोई मतलब नही है

डॉ. मोनिका शर्मा said...

समाज के किसी भी पक्ष की उन्नति इनके राजनितिक दाव पेचों में ही उलझ कर रह जाती है..... सार्थक पोस्ट

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक said...

प्रिय दोस्तों! क्षमा करें.कुछ निजी कारणों से आपकी पोस्ट/सारी पोस्टों का पढने का फ़िलहाल समय नहीं हैं,क्योंकि 20 मई से मेरी तपस्या शुरू हो रही है.तब कुछ समय मिला तो आपकी पोस्ट जरुर पढूंगा.फ़िलहाल आपके पास समय हो तो नीचे भेजे लिंकों को पढ़कर मेरी विचारधारा समझने की कोशिश करें.
दोस्तों,क्या सबसे बकवास पोस्ट पर टिप्पणी करोंगे. मत करना,वरना......... भारत देश के किसी थाने में आपके खिलाफ फर्जी देशद्रोह या किसी अन्य धारा के तहत केस दर्ज हो जायेगा. क्या कहा आपको डर नहीं लगता? फिर दिखाओ सब अपनी-अपनी हिम्मत का नमूना और यह रहा उसका लिंक प्यार करने वाले जीते हैं शान से, मरते हैं शान से
श्रीमान जी, हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु सुझाव :-आप भी अपने ब्लोगों पर "अपने ब्लॉग में हिंदी में लिखने वाला विजेट" लगाए. मैंने भी लगाये है.इससे हिंदी प्रेमियों को सुविधा और लाभ होगा.क्या आप हिंदी से प्रेम करते हैं? तब एक बार जरुर आये. मैंने अपने अनुभवों के आधार आज सभी हिंदी ब्लॉगर भाई यह शपथ लें हिंदी लिपि पर एक पोस्ट लिखी है.मुझे उम्मीद आप अपने सभी दोस्तों के साथ मेरे ब्लॉग एक बार जरुर आयेंगे. ऐसा मेरा विश्वास है.
क्या ब्लॉगर मेरी थोड़ी मदद कर सकते हैं अगर मुझे थोडा-सा साथ(धर्म और जाति से ऊपर उठकर"इंसानियत" के फर्ज के चलते ब्लॉगर भाइयों का ही)और तकनीकी जानकारी मिल जाए तो मैं इन भ्रष्टाचारियों को बेनकाब करने के साथ ही अपने प्राणों की आहुति देने को भी तैयार हूँ.
अगर आप चाहे तो मेरे इस संकल्प को पूरा करने में अपना सहयोग कर सकते हैं. आप द्वारा दी दो आँखों से दो व्यक्तियों को रोशनी मिलती हैं. क्या आप किन्ही दो व्यक्तियों को रोशनी देना चाहेंगे? नेत्रदान आप करें और दूसरों को भी प्रेरित करें क्या है आपकी नेत्रदान पर विचारधारा?
यह टी.आर.पी जो संस्थाएं तय करती हैं, वे उन्हीं व्यावसायिक घरानों के दिमाग की उपज हैं. जो प्रत्यक्ष तौर पर मनुष्य का शोषण करती हैं. इस लिहाज से टी.वी. चैनल भी परोक्ष रूप से जनता के शोषण के हथियार हैं, वैसे ही जैसे ज्यादातर बड़े अखबार. ये प्रसार माध्यम हैं जो विकृत होकर कंपनियों और रसूखवाले लोगों की गतिविधियों को समाचार बनाकर परोस रहे हैं.? कोशिश करें-तब ब्लाग भी "मीडिया" बन सकता है क्या है आपकी विचारधारा?

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक said...

मेरा बिना पानी पिए आज का उपवास है आप भी जाने क्यों मैंने यह व्रत किया है.

दिल्ली पुलिस का कोई खाकी वर्दी वाला मेरे मृतक शरीर को न छूने की कोशिश भी न करें. मैं नहीं मानता कि-तुम मेरे मृतक शरीर को छूने के भी लायक हो.आप भी उपरोक्त पत्र पढ़कर जाने की क्यों नहीं हैं पुलिस के अधिकारी मेरे मृतक शरीर को छूने के लायक?

मैं आपसे पत्र के माध्यम से वादा करता हूँ की अगर न्याय प्रक्रिया मेरा साथ देती है तब कम से कम 551लाख रूपये का राजस्व का सरकार को फायदा करवा सकता हूँ. मुझे किसी प्रकार का कोई ईनाम भी नहीं चाहिए.ऐसा ही एक पत्र दिल्ली के उच्च न्यायालय में लिखकर भेजा है. ज्यादा पढ़ने के लिए किल्क करके पढ़ें. मैं खाली हाथ आया और खाली हाथ लौट जाऊँगा.

मैंने अपनी पत्नी व उसके परिजनों के साथ ही दिल्ली पुलिस और न्याय व्यवस्था के अत्याचारों के विरोध में 20 मई 2011 से अन्न का त्याग किया हुआ है और 20 जून 2011 से केवल जल पीकर 28 जुलाई तक जैन धर्म की तपस्या करूँगा.जिसके कारण मोबाईल और लैंडलाइन फोन भी बंद रहेंगे. 23 जून से मौन व्रत भी शुरू होगा. आप दुआ करें कि-मेरी तपस्या पूरी हो