
पत्रकारिता की ऊपर से दिखाई पड़ने वाली चमक-दमक के बीच अक्सर ये बात गुम सी हो जाती है कि कई लोगों के लिए पत्रकारिता एक जोखिम भरा पेशा भी होती है। ये वो लोग होते हैं जो किसी खबर के पीछे मुल्कों और सरहदों के आरपार, एजेंसियों के अंदर और खबरों के बेहद करीब जाकर खड़े हो जाते हैं। मामला जंग का हो, आतंक का हो, किसी हादसे का हो, भूकंप का या सूनामी का हो, अक्सर अपनी सहूलियतों से बेपरवाह, अपने खतरों को पहचानते हुए भी कोई पत्रकार किसी मोर्चे पर जा पहुंचता है तो वो एक निहत्था सिपाही होता है जिसकी जान बड़ी आसानी से ली जा सकती है।हुकूमतें सबसे पहले उस पत्रकार को निशाना बनाती है जो इस सिलसिले की पहली कड़ी होता है- वो रिपोर्टर जो कहीं जाकर, किन्हीं अंधेरों में दाखिल होकर, सूचनाओं की सेंधमारी करता है और अगले दिन के अखबार के लिए एक जरूरी मसाला जुटाता है। ये पत्रकार कभी डेनियल पर्ल हो सकता है आतंकवादी जिसका सिर काट दें और कभी जापान का कोई फोटोग्राफर हो सकता है जिसे म्यानमार के फौजी गोली मार दें। लेकिन उसकी ताकत यही होती है कि वो मरते-मरते भी अपना पेशा नहीं भूलता। उसके हाथ से उसकी कलम, उसका कैमरा नहीं छूटता- सच को पकड़ने की उसकी जिद नहीं खत्म होती, भले इसके लिए जो भी कीमत चुकानी पड़े।
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