Monday, May 24, 2010

व्यवस्था का बेनकाब चेहरा

भारतीय किसानों की वर्तमान स्थिति को देखा जाए तो बहुत ही गंभीर स्थिति है। एक ओर तो प्राकृतिक प्रकोप हर साल किसानों की कमर तोड़ देते हैं, वही दूसरी ओर सरकारों की नीतियों ने भारतीय कृषि व किसानों को तबाह करने का रास्ता अपनाया है। इतिहास में झांककर देखें तो भारतीय किसान प्रकृति से कभी भी नहीं हारा है क्योंकि प्रकृति एक साल अकाल व बाढ़ से किसानों की रोटी छीनती है तो दूसरे साल उससे दस गुना ज्यादा देती भी है। लेकिन सरकारी नीतियां तो देने की बात तो दूर रही, किसानों को खुल्लमखुल्ला लूटती हैं। भारतीय कृषि की इस हालत का एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि आज तक देश में प्रभावी किसान वोट बैंक नहीं बन पाया है। जाति, धर्म, भाषा व क्षेत्रवाद के नाम पर किसानों को इस कदर बांट दिया गया है कि किसान अपने जमीनी मुद्दों से भटक गया है। चौधरी चरण सिंह जी ने भारतीय किसानों को संगठित किया था, लेकिन इसके बाद जो �ाी लोग किसान नेता के रूप में सामने आए वो राजनैतिक स्वार्थों के चलते किसानों की समस्याओं के साथ नहीं लड़ पाए। १९९० के बाद तो भारतीय किसान 'भारतीय जनता पार्टीÓ और वीपी सिंह के मण्डल-कमण्ड की राजनीति में उलझाया गया। सबसे ज्यादा इस देश में राजनैतिक शोषण किसान का ही हुआ है क्योंकि वो ईमानदार, विश्वासी और मेहनती होता है जिसका सत्ताधारी हमेशा गलत इस्तेमाल करते रहते हैं। नीति निर्धारकों को देश की आम-जनता की भाषा समझ में ही नहीं आती है। पिछले ७-८ सालों में जितनी बड़ी सं�या में भारतीय किसानों ने आत्महत्याएं की हैं उतनी मौतें द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से किसी भी युद्ध में नहीं हुईहैं। अभी तो भारतीय किसान खुद मर रहा है और अगर वो मारने पर उतर आया तो हालत खराब हो जाएगी। किसान को हर तरफ से लूटा जा रहा है। मिल मालिकों से लेकर राजनेताओं तक पूरा चक्रव्यूह ही ऐसा बनाया गया है कि किसान को उसके अधिकारों से वंचित रखा जाए। कुछ लोगों का तर्क होता है कि नई तकनीक आने से किसानों का नुकसान हुआ है, यह गलत-तर्क है, क्योंकि किसान का नुकसान नई तकनीक से नहीं गलत नीतियों के चलते हुआ है। यही कारण है कि डाक्टर का बेटा तो डाक्टर, इंजीनियर का बेटा तो इंजीनियर बनना चाहता है लेकिन किसान का बेटा किसान नहीं बनना चाहता। आजादी के ६० साल बाद भी खाना तो मंहगा हुआ है लेकिन किसान मरने लगा है। किसान चाहे महाराष्ट्र, यूपी, राजस्थान, कर्नानाटक या देश के किसी भी कोने से हो उसकी समस्या एक ही है कि अपनी फसल का उचित मूल्य उसे नहीं मिल पाता। इसी कारण से किसान का जीवन-स्तर का ग्राफ ऊपर उठने के बजाय नीचे की ओर चला जा रहा है। किसान का अब इस व्यवस्था पर कोई भरोसा नहीं रहा है, २ लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। यह स्थिति कभी भी नक्सलवाद व आतंकवादका रूप ले सकती है, अगर वक्त रहते भारतीय कृषि पर ध्यान नहीं दिया गया तो। कार खरीदने के लिए तो आसानी से ऋण मिल जाता है, लेकिन किसान को खेती के लिए मिलने वाले ऋण की प्रक्रिया इतनी जटिल होती है कि समय व जरूरत के हिसाब से कभी भी किसान को ऋण नहीं मिल पाता है। नाबार्ड से किसान को जो ऋण मिलता है, उसमेें स्टेट कोओपरेटिव बैंक, जिला कोओपरेटिव बैंक व स्थानीय कोओपरेटिव समीतियों का एक जाल बुना गया है। कौन से कारण है कि किसान को नाबार्ड सीधा ऋण नहंीं दे पाता है? भ्रष्टाचार! लूट! भारतीय कृषि व किसान की प्रगति का एक ही रास्ता है कि किसान का वोट बैंक बने और सत्ता किसानों के हाथ में हो। इस किसान विरोधी व्यवस्था को बदलने के लिए देश में तत्काल एक बड़े स्तर पर किसान आंदोलन की जरूरत है, जो रातनैतिक आंदोलन हो। सत्ता से कुछ मांगने का आंदोलन नहीं, सत्ता छीनने का आंदोलन। मुझे पूरा यकीन है कि एक दिन इस देश की राजसत्ता पर किसानों का कब्जा होगा और उसी दिन सही मायने में देश प्रगति के पथ पर अग्रसर होगा। भाषा, धर्म, जाति व क्षेत्र से ऊपर एक ही मुद्दा होना चाहिए। किसानों की समस्याएं।

1 comment:

shashikantsuman said...

अब शरद पवार जैसे दलालो को किसानो ने ही खुद चुना है। किसान स्वयं नही चाहते की उनकि दशा सुधरे..?सालो से किसानो के ही वोट पर चुनकर किसान विरोधी ओर पुंजीपतियो की समर्थक सरकार
सत्ता मे आती रही है।
धर्म जाति ओर रास्ट्र्वाद के नाम पर जब तक लोग बेवकुफ बनते रहेंगे तब तक देश मे जनवादी राजनिति के सफलता मे मुझे संदेह है।

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