आजकल भारत में ‘भविष्य की हिंदी व हिंदी का भविष्य’ को लेकर बहुत सी परिचर्चाएं, गोष्ठियों व कार्यशालाओं का आयोजन किया जा रहा है। अपनी भाषा को लेकर जो गर्व, जो उत्साह होना चाहिए उसकी हम भारतीयों में बहुत कमी है। हम हिंदी के ऩाम पर भाषणबाजी तो खूब करते हैं पर उतना श्रम और कर्म नहीं करते। हिंदी की सरकारी दावत तो खूब उड़ाई जाती है पर शिरोधार्य तो अँग्रेजी ही है।हमारा नेता, हमारा लेखक और बुद्धिजीवी-वर्ग हिंदी की दुहाई तो बहुत देता है परन्तु अपने कुल-दीपकों को अँग्रेजी स्कूलों और विदेशों में ही शिक्षा दिलवाना चाहता है। ‘हाथी के दांत, खाने के और दिखाने के और।’हमें अँग्रेजी बोलने, पढ़ने-लिखने और अँग्रेजियत दिखाने में अपना बड़प्पन दिखाई देता है किंतु सच तो यह है कि यह हमारी मानसिक हीनता ही है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने स्वदेश-प्रेम, स्वभाषा और स्व-संस्कृति की गरिमा पर जोर देते हुए कहा है-
निज भाषा उन्नति अहै; सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रविन।
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रविन।
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।
अँग्रेजी पढ़िए, जितनी और अधिक भाषाएं सीख सकें सीखें किंतु अपनी भाषा को हीन करके या बिसराने की कीमत पर कदापि नहीं।
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