Wednesday, August 10, 2011

चैनलों के अंदर की दुनिया


वेतन और सेवाशर्तों से लेकर न्यूजरूम के अंदर के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं

पहली किस्त

चैनल में काम करना ईंट भट्ठे पर काम करने जैसा लगता है..या कोयले के इंजन का ड्राइवर जैसे गर्मी में आग के सामने कोयला डालता था, बिना रूके..इस डर से की इंजन बंद हो जाएगा...वैसा ही अनुभव कराता है तथाकथित न्यूज रूम...पत्रकारिता त्याग मांगती है लेकिन ऐसा त्याग क्या कि एक सैनिक बार्डर पर नहीं...बल्कि अपने ही बैरक में गोली का शिकार हो जाए.”

“न्यूजरूम का माहौल: भेड़ बकरी चराने वाले जैसे चीखते हैं ....जानवरों को हांकने में वैसा ही कुछ बॉस चीखते हैं...जैसे चीख कर ही जूनिएर की कान में आवाज पहुंचाई जा सकती हो..क्या चीख चिल्ला कर ही काम किया जा सकता है?...क्या ऐसे अम्बिएंस में काम कर सकना लम्बे समय तक संभव है ?...न्यूज़ रूम और बॉस की नज़र में अपनी ब्रांडिंग करने का सबसे आसान तरीका चीखना चिल्लाना...अधिकांश लोग अपनी जानकारी और लिखने की कला को छोटा समझने लगे है और चीखने चिल्लाने को बड़ा...काश, मैं भी चीख सकता...की भावना आ रही है लोगो में..लगातार न्यूज़ परोसने के दबाव में नाम पर न्यूज़ रूम को टोर्चेर रूम बनाया जा रहा है..”

-एक न्यूज चैनल में कार्यरत युवा रिपोर्टर

“मैं अपने आपको रोज जलील होते देखता हूँ तो लगता है कि शायद सभी को ये सब सहना होता होगा, पर फिर लगता है कि शायद हमने ही पढाई नहीं की होगी..ऐसे ही हमें भर्ती कर लिया गाली सुनने के लिए...मैं अपना विश्वास खो रहा हूँ...शायद ये इलेक्ट्रानिक मीडिया का विनोद कापडी कल्चर है जो कुछ चैनलों के खून में बस चुका है और टी.आर.पी नामक अस्पताल में हमारा इलाज तो संभव नहीं...”

- चैनल छोड़ चुके एक युवा पत्रकार की व्यथा जो उसने मीडिया स्टडीज ग्रुप के सर्वेक्षण के दौरान बताई


ये कुछ बानगियाँ हैं जो बताती हैं कि आज न्यूज चैनलों के अंदर काम करनेवाले पत्रकारों की क्या स्थिति है? चैनलों में ऐसी आपबीतियों की कमी नहीं है. आप चैनलों के पत्रकारों से न्यूजरूम के अंदर कामकाज की परिस्थितियों के बारे में पूछिए और सम्भावना यह है कि लगभग ६० से ७५ प्रतिशत टी.वी पत्रकारों से आपको ऐसी ही शिकायतें और आपबीती सुनने को मिले.

इसमें कोई शक नहीं है कि न्यूज चैनलों के बीच गलाकाट प्रतियोगिता के कारण न्यूजरूम के अंदर पत्रकारों पर खासा दबाव और तनाव रहता है लेकिन यह दबाव और तनाव हाल के वर्षों में जिस तरह से बढ़ा है, उसका सीधा असर पत्रकारों के स्वास्थ्य और कामकाज पर भी पड़ रहा है.

हालांकि न्यूज चैनलों के अंदर के इस दमघोंटू माहौल के बारे टी.वी पत्रकारों खासकर युवा पत्रकारों के बीच कानाफूसियाँ बहुत दिनों से होती रही हैं. लेकिन पिछले महीने जब मैंने फेसबुक, गूगल-बज और आई.आई.एम.सी पूर्व छात्र ग्रुप मेल पर टी.वी पत्रकारों से उनके वेतन, सेवाशर्तों और कामकाज की परिस्थितियों के बारे में उनकी राय मांगी तो विभिन्न चैनलों के अनेकों टी.वी पत्रकारों ने लिखित और मौखिक रूप में जो बताया, वह कई मामलों में भयावह और रोंगटे खड़े कर देनेवाला और अधिकांश मामलों में चिंतित और परेशान करनेवाला है. उसकी कुछ बानगियाँ ऊपर दी हैं और जगह की कमी के कारण कई छोड़नी पड़ रही हैं.

असल में, चैनलों के स्क्रीन पर दिखने वाली खबरों, रिपोर्टों और कार्यक्रमों, चैनलों के नजरिये और प्रस्तुति को लेकर जितनी चर्चा होती है, उसका एक प्रतिशत भी चैनलों के अंदर की दुनिया और उसके पत्रकारों की स्थिति पर चर्चा नहीं होती है. जबकि चैनलों के अंदर के माहौल और पत्रकारों के वेतन और अन्य सेवाशर्तों का उनके कामकाज पर सीधा असर पड़ता है.

आखिरकार ये गेटकीपर (पत्रकार) ही चैनलों की व्यापक सम्पादकीय लाइन के तहत रोजाना खबरों के चयन से लेकर उनकी प्रस्तुति का फैसला करते हैं. ऐसे में, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि उनकी मानसिक और शारीरिक स्थिति निश्चित ही उनके कामकाज को प्रभावित करती है.

इसके बावजूद चैनलों के अंदर न्यूजरूम के माहौल और उसमें कार्यरत पत्रकारों के वेतन और सेवाशर्तों को चर्चा के लायक नहीं समझा जाता है. न्यूज मीडिया में इसे लेकर जिस तरह की ख़ामोशी और अनदेखा करने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है, वह काफी हद तक एक तरह की ‘षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी’ है. कुछ चुनिन्दा चैनलों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश चैनलों में पत्रकारों की स्थिति अच्छी नहीं है और उन्हें भारी तनाव और दबाव में काम करना पड़ता है.

वेतन और सेवाशर्तों के मामले में भी स्थिति दिन पर दिन बिगड़ती जा रही है. खासकर २००८-०९ की आर्थिक मंदी के बाद हुई छंटनियों के कारण काम का बोझ बढ़ता जा रहा है. लेकिन इसपर चर्चा और सुधार के बजाय चैनलों का प्रबंधन यहाँ तक कि कई संपादक भी मौजूदा स्थितियों का बचाव करते और उसे जायज ठहराते दिख जाते हैं.

सच यह है कि न्यूज चैनलों के पत्रकारों के वेतन, भत्तों, सेवाशर्तों आदि में गंभीर विषमताएं और विसंगतियाँ हैं. वेतन और सेवाशर्तों के मामले में कोई एकरूपता या समानता नहीं है. आमतौर पर अंग्रेजी न्यूज चैनलों में पत्रकारों का वेतन और सेवाशर्तें हिंदी और दूसरी भाषाओँ के न्यूज चैनलों की तुलना में बेहतर हैं.

लेकिन ऐसा नहीं है कि अंग्रेजी न्यूज चैनल में सब कुछ बेहतर ही है. वहां भी काम के घंटों, काम के बोझ और छुट्टियों आदि के मामले में कोई आदर्श स्थिति नहीं है. यही नहीं, कई अंग्रेजी चैनलों खासकर सबसे बडबोले अंग्रेजी चैनल में कामकाज का माहौल बहुत दमघोंटू और तनावपूर्ण है. बात-बात पर गाली-गलौज और अपमानित करने की शिकायतें भी आती रहती हैं.

लेकिन हिंदी न्यूज चैनलों में स्थिति और खराब है. यह सही है कि कुछ बड़े मीडिया समूहों के न्यूज चैनलों में पत्रकारों का वेतन तुलनात्मक रूप में ठीक-ठाक है. लेकिन तथ्य यह भी है कि वेतन वृद्धि के मामले में पिछले दो-ढाई सालों में स्थिति बिगड़ी है. छोटे-बड़े सभी चैनलों ने २००८-०९ की आर्थिक मंदी को बहाना बनाकर न सिर्फ वेतन वृद्धि नहीं की बल्कि बड़े पैमाने पर घोषित-अघोषित छंटनी की और काम का बोझ बढ़ा दिया. ‘स्टाफ रैशनालाइजेशन’ के नाम पर नई भर्तियाँ नहीं हो रही हैं या इक्का-दुक्का भर्तियाँ हो रही हैं. यही नहीं, बड़े और सफल चैनलों में भी निचले और मंझोले स्तर की भर्तियों में वेतन पहले की तुलना में कम हो गया है.

तर्क यह दिया जा रहा है कि न्यूज चैनलों में यह ‘वेतन के रैशनालाइजेशन’ का दौर है. इसके मुताबिक, शुरूआती दौर में टी.वी पत्रकारों खासकर प्रशिक्षित पत्रकारों की कमी के कारण पत्रकारों को प्रिंट मीडिया की तुलना में काफी ऊँची तनख्वाहें मिलीं. उस समय बार्गेनिंग की शक्ति टी.वी पत्रकारों के पक्ष में झुकी हुई थी.

लेकिन प्रबंधकों के अनुसार, यह स्थिति ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकती थी क्योंकि इससे मीडिया उद्योग में वेतन के मामले में एक तरह का ‘डिस्टार्शन’ पैदा हो गया था. कहने की जरूरत नहीं है कि आर्थिक मंदी ने न्यूज चैनलों के मालिकों और प्रबंधकों को इस कथित ‘डिस्टार्शन’ को सुधारने का मौका दे दिया जिसका उन्होंने जमकर फायदा उठाया है.

('कथादेश' के अगस्त अंक में प्रकाशित स्तम्भ की पहली किस्त..बाकी कल)





दोनों सिरों से जल रही है न्यूज चैनलों के पत्रकारों के जीवन की मोमबत्ती


बदतर सेवाशर्तों और कामकाज की परिस्थितियों के कारण बीमार हो रहे हैं न्यूज चैनलों के पत्रकार  

तीसरी और आखिरी किस्त

यही नहीं, चैनलों में इन दबावों और तनावों के कारण पत्रकारों के स्वास्थ्य पर भी बहुत बुरा असर पड़ रहा है. अनिल चमडिया के नेतृत्व में मीडिया स्टडीज ग्रुप ने कोई दो साल पहले मीडिया में काम करनेवाले पत्रकारों के कामकाज की परिस्थितियों और उनके स्वास्थ्य का हाल जानने के लिए सर्वेक्षण किया था जिसके नतीजे बहुत चौंकानेवाले थे. इस सर्वेक्षण के मुताबिक, करीब १२ फीसदी पत्रकार अपनी अनियमित दिनचर्या और काम के तनाव आदि के कारण डायबिटीज के शिकार हैं.

कंप्यूटर पर लगातार काम करने के कारण लगभग १४ फीसदी पत्रकार आर्थोपीडिक यानि पीठ दर्द और आर्थराइटिस आदि से पीड़ित हैं. करीब १२ फीसदी को आँखों की बिमारी है. करीब ६२ फीसदी पत्रकारों को खाने का समय या समय पर खाने का मौका नहीं मिलता है, इसके कारण १३ फीसदी को पाचन सम्बन्धी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है.


इस सर्वेक्षण के मुताबिक, लगभग ६२ फीसदी पत्रकारों को हर दिन आठ घंटे या उससे अधिक काम करना पड़ता है जिसका असर यह हुआ है कि उनमें से कोई ११ फीसदी मानसिक बिमारियों जैसे डिप्रेशन आदि का शिकार हो गए हैं. करीब १४ फीसदी को ह्रदय सम्बन्धी और बी.पी की समस्या से जूझना पड़ रहा है.

लेकिन सबसे अधिक तकलीफ की बात यह है कि उनमें से ४८ फीसदी पत्रकारों को इन बिमारियों के इलाज के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पता है. इसकी वजह छुट्टी न मिल पाना है. इस सर्वेक्षण के अनुसार, ११ फीसदी पत्रकारों को कोई साप्ताहिक अवकाश भी नहीं मिलता. केवल १७ फीसदी पत्रकारों को सप्ताह में दो दिन की छुट्टी का सौभाग्य मिलता है.

हालांकि यह सर्वेक्षण प्रिंट और टी.वी सहित सभी तरह के माध्यमों में काम करनेवाले पत्रकारों पर किया गया था. लेकिन टी.वी. न्यूज चैनलों के पत्रकारों से खुद की बातचीत के आधार पर कह सकता हूँ कि चैनलों में हालात और खराब हैं. मैं ऐसे कई टी.वी कर्मियों को जानता हूँ जो बहुत कम उम्र में बी.पी और डायबिटीज सहित स्पोंडीलाइटीस जैसी बिमारियों/समस्यायों के शिकार हो गए हैं.

इनमें से कई मेरे छात्र रहे हैं. कुछ को मजबूरी में नौकरियां तक छोड़नी पड़ी हैं. निश्चय ही, इसके लिए काफी हद तक चैनलों के अंदर की स्थितियां और कामकाज का माहौल जिम्मेदार है. कई बार ऐसा लगता है कि न्यूज चैनलों में काम करनेवाले पत्रकारों के जीवन की मोमबत्ती दोनों सिरों से जल रही है.

इसके बावजूद इसपर चर्चा करने के बजाय चैनलों के प्रबंधक और कई संपादक यह कहकर इसे ग्लैमराइज करने की कोशिश करते हैं कि न्यूज चैनलों में काम करने का दबाव और तनाव ही टी.वी पत्रकारिता का असली एक्साइटमेंट है. लेकिन यह एक्साइटमेंट अब जानलेवा होने लगा है.

जाहिर है कि यह न टी.वी कर्मियों के लिए अच्छा है और न चैनलों के लिए. अगर यह स्थिति सुधरी नहीं तो चैनलों के लिए योग्य और प्रतिभाशाली पत्रकारों को आकर्षित करना मुश्किल होने लगेगा. यही नहीं, इसका असर चैनलों के कंटेंट पर भी पड़ेगा. हम आम दर्शकों के लिए यह इसलिए भी गहरी चिंता का कारण होना चाहिए.

समय आ गया है जब इस मसले पर टी.वी पत्रकारों और न्यूज चैनलों के प्रबंधकों के बीच खुलकर बातचीत हो जिसमें सरकार और पत्रकार यूनियनों के लोग भी हिस्सा लें. सरकार अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती है. पहली बात तो यह है कि टी.वी पत्रकारों को भी श्रमजीवी पत्रकार कानून के दायरे में लाया जाए और उनकी तनख्वाहें भी अख़बारों के पत्रकारों और गैर पत्रकारों के वेतन आयोग के द्वारा तय की जाएँ.

इसके अलावा चैनलों में पत्रकारों को अपनी यूनियन बनाने का अधिकार भी मिलना चाहिए. यह ठीक है कि आज अधिकांश पत्रकार संगठन और यूनियनें अप्रभावी हो चुकी हैं या प्रबंधन के हाथ की कठपुतली बन चुकी हैं लेकिन इसके बावजूद अधिकांश अख़बारी प्रतिष्ठानों में यूनियनें हैं.

लेकिन क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि किसी भी चैनल में पत्रकारों की कोई यूनियन नहीं है? सवाल है कि क्या चैनल श्रम कानूनों से ऊपर हैं? अगर नहीं तो उनमें सभी श्रम कानूनों और श्रमजीवी पत्रकार कानून की खिल्ली क्यों उडाई जा रही है? यहाँ यह कहना जरूरी है कि ये बहुत महत्वपूर्ण सवाल हैं. इन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता है.

मीडिया अगर लोकतंत्र का चौथा खम्भा है तो उसके अंदर क्या चल रहा है और उसके कर्मियों का क्या हाल है, यह हम सबकी चिंता का विषय होना चाहिए. यह चुप्पी अब टूटनी चाहिए क्योंकि अगर हमने खबर देनेवालों की खबर नहीं रखी तो उनकी खबर और कौन लेगा?

 साभार (तीसरा रास्ता) by

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