Wednesday, August 10, 2011



वर्तिका नंदा की किताब 'टेलीविजन और क्राइम रिपोर्टिंग', इंडिया टुडे में प्रकाशित समीक्षा
नब्बे के दशक में मीडिया का स्वरूप बहुत तेजी से बदला. यह वह दौर था जब भारतीय दर्शक दूरदर्शन के फ्रेम से बाहर आकर सैटेलाइट चैनलों की चमक में खोने लगा था. यहीं से बाजार उसे देखने लगा. समाचार की भाषा, मानक, स्वरूप, सरोकार और उसका चयन सब कुछ बदलने लगे. साल 2000 आते-आते अखबार के सेंट्रल डेस्क से लेकर टीवी न्यूजरूम तक सब बाजार की भाषा बोलने लगे. फरमान जारी होने लगे कि 'अगर कुछ बिकता है तो वह है सिनेमा, क्रिकेट और क्राइम. इसी पर फोकस करो.'

इन तीनों में भी क्राइम की पैठ हर जगह बन गई. अखबार में अपराध की खबरें अखबारों और समाचार चैनलों की सुर्खियां बनने लगीं. मीडिया ने भी पारंपरिक परिभाषाओं की सीमाएं तोड़ीं और अपराध की छोटी-बड़ी हर हरकत को सनसनीखेज तरीके से पेश करने लगा. सनसनी के इस समय में अपराध पत्रकारिता का मूल स्वरूप क्या होना चाहिए, यह जानने के लिए वर्तिका नंदा की इस पुस्तक से गुजरना मुफीद होगा.


जानी-मानी मीडिया समीक्षक, पत्रकार और अब दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज में पत्रकारिता विभाग की प्रमुख डॉ. वर्तिका नंदा ने अरसे तक एनडीटीवी के लिए क्राइम रिपोर्टिंग की. फिर वहीं क्राइम टीम की हेड रहीं. नंदा के पके-तपे अनुभव का लेखा-जोखा उनकी यह पुस्तक क्राइम रिपोर्टिंग के जरिए टीवी पत्रकारिता के कई अनिवार्य पहलुओं, मानकों और अंतर्जगत को किसी जहीन अध्यापिका की तरह समझाती है. यह पुस्तक उनकी पहले छपी किताब 'टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता' का व्यवस्थित संस्करण है.

नंदा के कार्यानुभव
की फेहरिस्त देखकर और उनकी इस पुस्तक से गुजरकर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह पुस्तक क्राइम रिपोर्टिंग के जितने सटीक और व्यवस्थित अध्याय पेश करती है वह इससे पहले हिंदी में आई किसी एक पुस्तक में संभव नहीं हो पाया है. पुस्तक में वरिष्ठ पत्रकार मृणाल पांडे ने लिखा है, 'यह किताब हिंदी पत्रकारिता के गंभीर अध्येताओं, विशेषकर टीवी पत्रकारिता के छात्रों के लिए अपराध-पत्रकारिता के अनेक आयाम उजागर करने वाली पठनीय सामग्री देती है.' पुस्तक के आमुख में आइबीएन के एडीटर इन चीफ राजदीप सरदेसाई लिखते हैं, 'वर्तिका नंदा की टीवी और क्राइम रिपोर्टिंग पर यह किताब ट्रेनिंग को लेकर उपजे खालीपन को भरने की तरफ एक बड़ा कदम है. खासकर नए पत्रकारों को इस किताब को अनिवार्य तौर पर पढ़ना चाहिए क्योंकि यह हुनर को निखारने के लिए ही लिखी गई है.'

इन शब्दों की तस्दीक
यूं भी होती है कि सात आसमानों, सात समंदरों, सात रंगों और सात सुरों से प्रेरित नंदा ने इस पुस्तक में टीवी क्राइम रिपोर्टिंग जैसे गूढ़ विषय को समझाने के लिए अध्याय भी सात ही रखे हैं. पहला-न्यूज मीडिया और अपराध पर केंद्रित है, तो दूसरे में क्राइम रिपोर्टिंग की योग्यता और तैयारी पर फोकस किया गया है. तीसरा खबरों के स्त्रोत खोजना सिखाता है, तो चौथे अध्याय में न्यूजरूम का व्याकरण पढ़ा जा सकता है. पांचवें और छठे अध्याय में क्रमशः समाचार लेखन और टीवी न्यूज में प्रोडक्शन और तकनीक की तकनीक समझाई गई है, तो सातवां अध्याय इंटरव्यू, प्रेस कॉन्फ्रेंस और एंकरिंग की तैयारी करवाता है.

पुस्तक में पवन
के रोचक कार्टूंस के जरिए स्पॉट के नजारे और हालात हैं, तो अंत में सिनेमा के लाइट, कैमरा, ऐक्शन से कहीं आगे टीवी की वह बारीक-से-बारीक शब्दावली है जो अगर छात्र टीवी मीडिया में आने से पहले सीख लें तो फील्ड में शायद ही कभी शर्मिंदा होना पड़े.

अकबर इलाहबादी
ने कहा थाः खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो/ जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो. पत्रकारिता के निष्पक्ष, ईमानदार, ताकतवर दौर की अलमबरदार ये पंक्तियां आज की पत्रकारिता पर कही जाएं तो शायद कुछ यूं होंगीः देखो न उसूलों को, न सच्चाई खंगालो/ बाज़ार मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो. नंदा की यह पुस्तक अपराध पत्रकारिता के मानकों को नए सिरे से समझाती है.

No comments: