Saturday, January 22, 2011

हिंदी पर राजनीति कितनी जायज

यह देश का दुर्भाग्य ही है कि हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए जब भी केंद्र सरकार कोई योजना बनाती है अथवा कोई अन्य पहल करती है तो उसे राजनीतिक दांव-पेंच में उलझा दिया जाता है। पिछले दिनों विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा सत्र 2011-12 से देश के सभी 43 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले विदेशी छात्रों के लिए हिंदी के पठन-पाठन की व्यवस्था अनिवार्य कर दी गई है। इसके तहत अगले तीन साल में विदेशी छात्रों के लिए एक अनिवार्य विषय के रूप में हिंदी पढ़ाई जाएगाी। यूजीसी द्वारा देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में विदेशी छात्रों के लिए स्नातक व परास्नातक पाठ्यक्रमों में हिंदी पढ़ना अनिवार्य बनाने की बात कही गई है। केंद्रीय राजभाषा क्रियान्वयन समिति ने इस प्रस्ताव का प्रारूप तैयार किया है। हालांकि हिंदी प्रेमियों के लिए यह गर्व की बात होनी चाहिए,। लेकिन ठीक इसके उलट गत दिनों केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में जवाहर नवोदय विद्यालय खोलने की मंशा दविण मुनेत्र कडगम यानी डीएमके प्रमुख एम.करुणानिधि के पुत्र और राज्य के वर्तमान उप मुख्यमंत्री स्टालिन से जाहिर की। इस बारे में स्टालिन ने मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को साफ मना कर दिया कि तमिलनाडु राज्य में नवोदय विद्यालय नहींखोले जाएंगो, क्योंकि इसके जरिए दक्षिण के राज्यों में हिंदी भाषा का प्रचार व प्रसार किए जाने का कार्य किया जाएगा, जो उन्हें कतई स्वीकार नहीं हो सकता है। उनके मुताबिक केंद्र सरकार अंग्रेजी और तमिल माध्यमों में विद्यालय खोलना चाहे तो इसके लिए उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। इस समय देश भर में 593 नवोदय विद्यालय हैं जिसमें तमिलनाडु ही भारत का एकमात्र प्रदेश है जहां एक भी नवोदय विद्यालय नहीं है। इसकी वजह है हिंदी, जबकि इस विद्यालय की शिक्षण प्रणाली त्रिभाषा फार्मूले पर आधारित है। इसके मुताबिक जो प्रदेश गैर हिंदी भाषी हैं, वहां स्थानीय भाषा में पढ़ाई की व्यवस्था की जानी है। हिंदी की अनिवार्यता पाठ्यक्रम में केवल इसलिए किया गया है ताकि अहिंदी भाषी छात्र भी इससे परिचित हो सकें। यहां सवाल यह है कि सरकार जिन नवोदय विद्यालयों को अखिल भारतीय शिक्षा योजना कह रही है, क्या हकीकत में उसे पूर्ण कहा जा सकता है? यह एक बड़ी विडंबना ही है कि संविधान में हिंदी के लिए काफी प्रावधान किए गए हैं, फिर भी ऐसा लगता है कि उसके क्रियान्वयन में ईमानदारी नहीं बरती गई है।। संविधान के इस प्रावधान का जितना उल्लंघन और निरादर हुआ है शायद ही किसी और का हुआ हो। दरअसल सरकार और हर पार्टी को वोट चाहिए और जब ये लोग वोट के नजरिए से देखते हैं तो प्रचार करते हैं कि अमुक प्रदेश के लोग हिंदी नहींचाहते। दरअसल यहां पूरा मामला वोट की राजनीति का ही है। वह भली प्रकार समझते हैं कि यदि हिंदी लागू किया गया तो उन्हें वोट नहींमिलेंगे। इस तरह एक तो वोट की राजनीति और ऊंचे जगहों पर बैठे राजनीतिक नेता अपना दबदबा बरकरार रखना चाहते हैं। यहां यह बात उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारतीय नेता और संविधान सभा के सदस्य रामास्वामी आयंगर ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की पुरजोर वकालत की थी। हिंदी को लेकर जिस तरह का बवाल डीएमके और एआईडीएमके द्वारा मचाया जाता है असल में वह राजनीति से प्रेरित है, क्योंकि हिंदी विरोध का स्वर वहां की जनता से ज्यादा नेताओं में दिखता है। वहीं तमिलनाडु के छात्र जब दिल्ली सहित दूसरे बड़े शहरों में शिक्षा या रोजगाार के लिए जाते हैं तो वे बखूबी हिंदी बोलते देखे जा सकते हैं। नई दिल्ली स्थित जेएनयू परिसर में भारत के प्रतिष्ठित पत्रकारिता संस्थान में जिस वक्त मैं पढ़ता था वहां कई दक्षिण भारतीय मेरे मित्र थे। जिनसे मैं हिंदी में बात करता था और वह भी मुझसे हिंदी में बात करते थे। उनकी जुबान से कभी भी मैने हिंदी विरोध की बातें नहीं सुनी। गौरतलब है कि कोठारी शिक्षा आयोग ने 1964-66 की अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि भारत में सौहार्द और सामाजिक सामंजस्य स्थापित करने के लिए जरूरी है कि सभी बच्चों के लिए समान गुणवत्ता वाली स्कूल प्रणाली स्थापित की जाए। भारत की पहली शिक्षा नीति 1968 में, दूसरी 1986 और तीसरी 1992 में पेश हुई। तीनों ही शिक्षा नीतियों ने आयोग की सिफारिशों को स्वीकार किया। हिंदी का विरोध सबसे पहले दक्षिण भारत में शुरू हुआ। वास्तव में यह विरोध 1937 में उस समय शुरू हुआ जब उस वक्त के मद्रास में हिंदी की शिक्षा को अनिवार्य किया गया। इस विरोध आंदोलन का नेतृत्व जस्टिस पार्टी ने किया था। परिणामस्वरूप 1940 में ब्रिटिश सरकार ने यह प्रस्ताव वापस ले लिया और हिंदी की अनिवार्यता खत्म कर दी गई। आजादी के बाद भी गैर हिंदी राज्यों मे हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने को लेकर मतभेद था और वे अंगे्रजी में ही सरकारी कामकाज को जारी रखना चाहते थे। इसके बाद 1965 में जब संविधान लागू हुए 15 वर्ष हो गए तो हिंदी को एकमात्र आधिकारिक भाषा होना था, लेकिन ठीक उसी दिन 26 जनवरी, 1965 को हिंदी विरोध आंदोलन की गति और तेज हो गई। मदुरै में दंगा-फसाद शुरू हो गया और काफी जानें गई। लिहाजा तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने आश्वासन दिया की गैर हिंदी राज्य जब तक चाहें हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को भी इस्तेमाल कर सकते हैं। 1986 में जब राजीव गांधी ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अंतर्गात नवोदय विद्यालय योजना लागू की तो एक बार फिर तमिलनाडु मे डीएमके ने यह कहकर इसका विरोध किया कि इससे हिंदी शिक्षा अनिवार्य हो जाएगाी। 13 नवंबर, 1986 को विधानसभा में एक प्रस्ताव पास किया गया जिसमें अंग्रेजी को संघ का आधिकारिक भाषा बनाने की मांग की गाई। 17 नवंबर, 1986 को डीएमके की अगुवाई में इस आंदोलन ने जोर पकड़ा। आखिरकार राजीव गांधी को संसद में आश्वासन देना पड़ा कि तमिलनाडु में हिंदी थोपी नहीं जाएगी। दक्षिण भारत के अलावा वर्तमान महाराष्ट्र में हिंदी का एक पार्टी के द्वारा विरोध जगा है। यह सही है कि हर एक को अपनी भाषा से लगााव होता है और यह उस राज्य की वहां के रहने वालों की एक पहचान होती है, लेकिन हमारी पहली पहचान हमारी भारतीयता है। पहले हम हिंदुस्तानी हैं, हिंदी हैं फिर कोई और। यदि किसी भाषा का विरोध करना ही है तो हमें अंग्रेजी का करना चाहिए न की हिंदी का। एक तरफ सरकार हिंदी को बढ़ावा देने के मकसद से दूसरे देशों के छात्रों को हिंदी पढ़ाना चाहती है वहीं दूसरी तरफ तमिलनाडु जैसे राज्य में नवोदय विद्यालय न खुल पाना एक विरोधाभास और हास्यास्पद घटना है। अगर सरकार वाकई हिंदी के लिए कुछ करना चाहती है तो वह किश्तों में प्रयास करना बंद करे और एक ठोस निर्णय लेते हुए नवोदय विद्यालय को संपूर्ण भारत की शिक्षा में शामिल करने की बाधाएं दूर करनी चाहिए। साभार

No comments: