Saturday, October 29, 2011

दवा कारोबार पर बढ़ता विदेशी संकट

देश के दवा कारोबार पर विदेशी कंपनियों का वर्चस्व बढ़ता ही जा रहा है, एक के बाद एक छोटी-बड़ी भारतीय दवा कंपनियाँ विदेशी कंपनियों के हाथों बिकती जा रही है, जिससे भारतीय दवा कंपनियों पर विदेशी कंपनियों का कब्जा शुरू हो गया है वर्ष 2001 में दवा क्षेत्र को सौ फीसदी विदेशी निवेश के लिये खोला गया था और उस समय से लेकर अब तक कई भारतीय कंपनियाँ विदेशी हाथो में जा चुकी है छोटी कंपनियों में निर्णायक हिस्सेदारी खरीदने का चलन तो नब्बे के दशक से ही शुरु हो गया था लेकिन बड़ी कंपनियों के बिकने का सिलसिला पिछले पाँच साल में जोर पकड चुका है इस कड़ी में सबसे पहले अगस्त 2006 में नामी भारतीय दवा कम्पनी मैट्रिक्स लैब को अमेरिकी कम्पनी मायलान ने खरीदा था इसके बाद अप्रैल 2008 में डाबर फार्मा का फ्रेसियस कैबी ने जून 2008 में रैनबेक्सी का दायची सैक्यो ने, जुलाई 2008 में शांता बायोटेक का सनोफी अवन्तिस ने, दिसम्बर 2009 में आर्किड कैमिकल्स का होसपीरा ने और मई 2010 में पीरामल हेल्थकेयर का एबट लैबोरेट्रीज ने अधिग्रहण कर लिया था पीरामल हेल्थकेयर की गिनती देश की दस सबसे बड़ी कंपनियों में होती थी रैबेक्सी के बाद विदेशी हाथो में जाने वाली यह दूसरी बड़ी कम्पनी है
गौर करने लायक बात यह है कि पीरामल और रैनबेक्सी जैसी कंपनियों को खरीदने के बाद विदेशी कम्पनियाँ भारतीय दवा बाजार में चोटी पर पहुंच गई है मिसाल के तौर पर पीरामल के अधिग्रहण के बाद अमेरिका कि एबट सात फीसद हिस्सेदारी के साथ भारत कि सबसे बड़ी दवा कंपनियों में से तीन विदेशी है और यह तादाद बढ़ने वाली है क्योकि विदेशी कम्पनियाँ किसी भी कीमत पर घरेलू कंपनियों को खरीदना चाहती है
सवाल उठता है कि भारतीय दवा कम्पनीयों में बहुराष्टीय कंपनियों कि इस कदर दिलचस्पी के क्या कारण है? असल में भारत और चीन समेत दुनिया के तमाम विकासशील देशो में लोगों कि आमदनी बढ़ने के साथ ही स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता भी बढती ही जा रही है
2020 तक उभरते देशो में दवा कारोबार चार सौ अरब डालर को पार कर जाएगा और इसमे अकेले भारतीय बाजार कि हिस्सेदारी चालीस अरब डालर से ज्यादा होगी
विकसित देशो के दवा बाजार में विस्तार कि संभावनाए नगण्य है भारी प्रर्तिस्पर्धा के चलते दवा कंपनियों के मुनाफे में कमी आ रही है और विकसित देशो का दवा कारोबार महज एक फीसद कि रफ्तार से बढ़ रहा है जाहिर है कि कोई भी बहुराष्टीय कम्पनियाँ अपार सभावनाओं वाले इस बाजार को अनदेखा नहीं कर सकती ये बहुराष्टीय कम्पनियाँ दो रणनीतियो पर काम करती है पहली किसी भी कीमत पर स्थानीय दवा कंपनियों का सफाया करके घरेलू बाजार पर कब्जा करना और दूसरी एकाधिकार होने के बाद दवाओं की कीमतों में इजाफा करके मुनाफ़ा कमाना
2007 में भारतीय दवा बाजार में विदेशी कंपनियों कि हिस्सेदारी पन्द्रह फीसद थी वही 2010 में यह आकड़ा पचीस फीसद को पार कर गया है जानकारों के मुताबिक़ आगामी पाँच सालो में भारत के आधे से ज्यादा दवा कारोबार पर विदेशी कंपनियों का कब्जा हो जाएगा
दिक्कत यही से शुरू होती है बहुराष्टीय कम्पनियाँ बाजार पर नियंत्रण करने के बाद कीमतों में इजाफा करना शुरू कर देती है जब एक बार ये कम्पनियाँ दवाओं के दाम बढाना शुरू करेगी तो कम संसाधनों वाली छोटी दवा कम्पनियाँ अपने आप दवाब में आ जायेगी
ऐसे में सारा खामियाजा गरीब जनता को भुगतना पडेगा जिसकी जेब पर महंगी दवाओं के जरिये डाका डाला जाएगा अब बहुराष्टीय कम्पनियाँ भारतीय दवा कम्पनियों को हथिया कर एक तीर से दो निशाने साधना चाहती है भारत जैसे विकासशील देश में मरीज के लिये दवाओं कि कीमत बेहद अहम है राष्टीय नमूना सर्वेक्षण के मुताबिक़ हमारे यहाँ इलाज के कुल खर्च में अस्सी फीसद लागत दवाओं कि होती है जिस देश में अस्सी करोड लोग दो जून कि रोटी का भी जुगाड नहीं कर पाते हो वहाँ पर महंगी दवाएं कितने लोग खरीद पाएंगे, इसका अनुमान लगाया जा सकता है
भारतीय दवा उद्योग के वजुद पर छाए इस संकट के गंभीर परिणाम देश को भुगतने पड़ सकते है
अभी तो केवल पाचँ बड़ी कम्पनियाँ बिकी है, लेकिन बहुराष्टीय कंपनियों ने डाक्टर रैड्डीज,अरबिंदो फार्मा,सिपला और जायडस कैडिला समेत बीस बड़ी भारतीय दवा कम्पनियाँ पर नजरें गडा रखी है
घरेलू दवा कम्पनियों को बहुराष्टीय कम्पनियाँ इतनी आकर्षक कीमत कि पेशकश कर रही है जो भविष्य में इस कारोबार से होने वाली आमदनी और अनुमानित वृद्धि के मुकाबले कही ज्यादा है
जाहिर है सरकार के असहयोगी रवैये के कारण दवा कम्पनियाँ ज्यादा मुनाफे वाले क्षेत्रो कि और रुख कर रही है अगर देशी कंपनियों के अधिग्रहण का सिलसिला जारी रहा तो सस्ती जेनेरिक दवाओं का संकट गहरा जाएगा बहुराष्टीय कम्पनियाँ बाजार में हिस्सेदारी बढते हि कीमतों में बढोतरी करेंगी जनता को इस संकट से बचाने के लिये सरकार को दवा उद्योग की सेहत सुधारने कि और ध्यान देना होगा |

दलीप कुमार (लेखक शोधकर्त्ता एवं पत्रकार है)

संपर्क - 139,कावेरी छात्रावास, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय,नई दिल्ली-67
ईमेल -dalipjnu@gmail.com
मोबाइल -8527436703

Wednesday, August 10, 2011

अब फेसबुक ने बनाई ‘तीसरी दुनिया’

एक नई दुनिया बन कर तैयार हो रही है। यह दुनिया एक दूसरे से मिले बिना एक दूसरे से जुड़ी रहती है। एक दूसरे के सपने, गुस्से और दुख को बांटती है और पल भर में एक दूसरे के साथ जुड़ भी जाती है। यह बात अलग है कि जितनी तेजी से जुड़ती है, उतनी ही तेजी से उन संबंधों को किसी डस्टबिन में फेंक आगे निकल भी जाती है।नए आकंड़े बड़ी मजेदार बातें बताते हैं। अगर दुनिया भर के फेसबुक यूजर्स की संख्या को आपस में जोड़ लिया जाए तो दुनिया की तीसरी सबसे अधिक आबादी वाला देश हमारे सामने खड़ा होगा। अब जबकि आबादी की 50 प्रतिशत हिस्सा 30 से कम उम्र का है, फेसबुक स्टेटस सिंबल बन चुका है। आधुनिक बाजार का 93 प्रतिशत हिस्सा सोशल नेटवर्किंग साइट्स का इस्तेमाल करता है। भारतीय युवा तो इस नए नटखट खिलौने के ऐसे दीवाने हो गए हैं कि भारत दुनिया का चौथा सबसे अधिक फेसबुक का इस्तेमाल करने वाला देश बन गया है।कोलंबिया यूनिवर्सिटी से आए श्री श्रीनिवासन हाल ही में दिल्ली के अमरीकन सेंटर में सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर खूब खुलकर बोले। देश के कुछ बड़े कालेजों के छात्रों के बीच उनकी कही बातें फेसबुक के बड़े होते कद को बार-बार साबित करती चली गईँ। एकबारगी तो ऐसा लगा कि जैसे फेसबुक का पीआर ही हो रहा हो। यहां पारंपरिक साधनों का कोई जिक्र नहीं था। यहां फेसबुक एक ऐसे राजा की तरह उभरा जो प्रजा भी खुद है और शहंशाह भी।छात्रों से भरे इस हाल में एक टिप्पणी ऐसी थी जिसने चौंका दिया। एक युवक ने कहा कि फेसबुक को अब बड़ी उम्र के लोगयानी 35 पार वाले भी इस्तेमाल करते हैं। यानी छात्रों को यह मुगालता है कि फेसबुक शायद सिर्फ उन्हीं के लिए ईजाद किया गया और दूसरे 35 से पार वाले लोग बुजुर्ग हैं। यह संकेत एक ऐसे माहौल के तैयार होने का है जहां मुस्कुराहट भले ही हो पर यथार्थ और गरमाहट यहां से नदारद है।फेसबुक जिस आपसी जुड़ाव की कथित जमीन को तैयार कर रहा है, यह उसके खोखलेपन का एक बड़ा सुबूत है। उन्हें फेसबुक की यह दीवानगी उपजी कहां से है और क्यों है। असल में फेसबुक युवाओं के अंदर फैले उस खालीपन को दूर करने का रास्ता है जिसे वे किसी अंधेरी सुरंग में छिपाए रहते हैं। लेकिन यहां एक बात और सोचने की है। हर नई चीज को सिर्फ युवाओं से ही क्यों जोड़ा जाए। क्या फेसबुक सिर्फ युवाओं की ही जरूरत है। नहीं। बड़ी तादाद में बुजुर्ग इस फेसबुक से जुड़ने लगे हैं ( और यहां बुजुर्गों से आशय 70 पार के लोगों से है) और उनका जुड़ना भावनात्मक स्तर पर ज्यादा निश्छल है। यहां किसी इम्प्रैस करने के लिए फेसबुकपना नहीं किया जाता। यहां अपनों की तलाश की जाती है, पोते-पोतियों को भूली-बिसरी लोरियां याद दिलायी जाती हैं और उनसे उनके हाल की खोज-खबर कर झुर्रियों से भरे चेहरों पर मुस्कान लाने की कोशिश की जाती है।रिश्तेदार जो अक्सर रविवार की शामों को जमा हो कर गली-मोहल्लों-स्कूलों की पुरानी बातें यादें किया करते थे, वे भी अब इसी फेसबुक पर जमा होकर कागजी धमाचौकड़ी कर लेतें हैं और खुशियां बांट लेते हैं। यह एक बड़ी बात है। अकेलेपन को भोगते बुजुर्गों के लिए यह फेसबुक सपनों का उड़नखटोला बन कर आया है। उम्र के इस पड़ाव पर अपने पुराने दोस्तों को ढूंढने के लिए अब उन्हें बेवजह ही  व्यस्त दिखते अपने बेटों के आगे चिरौरी नहीं करनी पड़ती। वे खुद जब चाहें अपनी पुरानी जड़ों को तलाश सकते हैं और अपने बुढ़ापे में कुछ रौशनियां भर सकते हैं।एक बात और ख्याल आती है। अमरीका जोर-शोर से फेसबुक की बात करता आ रहा है। हम भारत में रहकर भी कभी भी अपने पारंपरिक संचार माध्यमों का वैसा प्रचार कर ही नहीं पाए। भारतीय रेल के एक बड़े अधिकारी अरविंद कुमार सिंह सालों साल डाकिए पर शोध करते रहे हैं और इस पर उनकी लिखी किताब देश की सबसे अनूठी किताब है पर उसका ऐसा प्रचार कभी नहीं हुआ। डाक के डिब्बे और डाकिए के हाथों से मिलती एक चिट्ठी जिंदगी में कैसे रंग भरा करती थी, इस पर भारत सरकार कभी फख्र से झंडे गाढ़ नहीं पाई। पातियों के वे भीगे-महकते दिन अब शायद कभी न लौटें। कबूतर भी शायद कुछ सालों में गुप्त संदेश ले जाने के रास्ते भूल जाएं लेकिन अमरीका याद रखेगा कि फेसबुक और बाकी दूसरे संचार माध्यमों को अधिकाधिक पापुलर कैसे बनाना है। हम सोचते ही रह जाते हैं और बिग ब्रदर हमेशा एक लंबी छलांग भर कर आगे निकल जाता है।
(वर्तिका नन्दा, मीडिया विश्लेषक)

पत्रकारिता: खबरनवीसी पर मंडराते खतरे

मीडिया का अंडरवर्ल्ड
मीडिया का अंडरवर्ल्ड
एक अंडरवर्ल्ड है
मीडिया का भी, जिसके बारे में खुद मीडिया में बहुत कम या न के बराबर चर्चा होती है. अपराध के अंडरवर्ल्ड की तरह मीडिया के अंडरवर्ल्ड में भी हर तरह के धतकरम हो रहे हैं.

खबरों की खुलेआम खरीद-बिक्री हो रही है, ख़बरें 'मैनेज' की जा रही हैं, पाठकों-दर्शकों को धोखा दिया जा रहा है और समाचार मीडिया का एजेंडा कॉर्पोरेट पूंजी और राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान तय करने लगे हैं. नतीजा, यह अंडरवर्ल्ड मुनाफे के लिए पत्रकारिता के सभी आदर्शों, मूल्यों, सिद्धांतों और नैतिकता की खुलेआम बोली लगाने में भी नहीं हिचकिचा रहा है.

हालांकि इसमें नया कुछ नहीं है. पत्रकार और मीडिया विश्लेषक दिलीप मंडल अपनी किताब 'मीडिया का अंडरवर्ल्डः पेड न्यूज, कॉर्पोरेट और लोकतंत्र' में स्वीकार करते हैं कि भारतीय समाचार मीडिया में ये प्रवृत्तियां काफी लंबे अरसे से देखी जा रही हैं. अलबत्ता, पहले ये थोड़ी ढकी-छिपीं और डरी-शरमाई-सी थीं लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह खुला खेल फर्रुखाबादी हो गया है. इस बीच, मीडिया के इस अंडरवर्ल्ड का न सिर्फ दायरा और दबदबा बढ़ा है बल्कि काफी हद तक लाज-शर्म भी खत्म हो गई है.

खासकर खबरों की खरीद-बिक्री यानी पेड न्यूज का चलन इस हद तक बढ़ गया है कि संसद से लेकर सड़क तक थू-थू होने लगी है. निश्चय ही, इसके कारण समाचार मीडिया की साख दरकी है. लोकतंत्र के चौथे खंभे और सार्वजनिक हितों के पहरेदार की उसकी छवि विखंडित हुई है और उस पर सार्वजनिक तौर पर सवाल उठने लगे हैं. इसके बावजूद खुद मीडिया ने अपने तईं इसे अनदेखा करने की बहुत कोशिश की और सब कुछ खुलने के बावजूद अभी भी एक परदादारी दिखती है.

यह सचमुच बहुत हैरानी की बात है कि देश-दुनिया के सभी छोटे-बड़े मुद्दों पर चर्चा और उनकी चीर-फाड़ करने को अपना अधिकार समझ्ने वाला समाचार मीडिया खुद अपने अंदर झंकने या अपने बारे में बातें करने को बहुत उत्सुक नहीं दिखता है. लेकिन अब स्थिति धीरे-धीरे बदलने लगी है.

बढ़ती आलोचनाओं के कारण मीडिया में खुद के कामकाज की पड़ताल और चर्चा होने लगी है. पिछले एक-डेढ़ दशकों में जिस तरह से मीडिया का विस्तार और उसके प्रभाव में वृद्धि हुई है, उसके कारण लोकतांत्रिक ढांचे में उसकी भूमिका और क्रियाकलापों की छानबीन और विमर्श में रुचि काफी बढ़ गई है. इसी का नतीजा है दिलीप मंडल की किताब. इसका कई कारणों से स्वागत किया जाना चाहिए. यह न सिर्फ समाचार मीडिया में फैलते पेड न्यूज के कैंसर की बारीक पड़ताल करती है बल्कि उसे मीडिया के कॉर्पोरेट ढांचे और उसके व्यापक राजनीतिक अर्थशास्त्र के संदर्भ में जांचने-परखने की कोशिश करती है. इस प्रक्रिया में यह मीडिया के उस अंडरवर्ल्ड पर से परदा उठाने में काफी हद तक कामयाब होती है, जो हाल के वर्षों में कॉर्पोरेट मीडिया की मुख्यधारा पर छाता जा रहा है. मंडल की कई स्थापनाएं चौंकाती हैं लेकिन उनसे असहमत होना मुश्किल है. जैसे आज ''मीडिया की अंतर्वस्तु लगभग पूरी तरह से मीडिया के अर्थशास्त्र से निर्धारित हो रही है. संपादकीय सामग्री पर बा.जार का नियंत्रण लगभग समग्र रूप से स्थापित हो चुका है. विज्ञापनदाता, क्या छपेगा के साथ ही क्या नहीं छपेगा का भी काफी हद तक निर्धारण करने लगे हैं.'' उनका यह भी कहना है कि, ''इस वजह से कंटेंट की विविधता का भी लगभग अंत हो गया है. लगभग सभी महत्वपूर्ण मुद्दों पर मीडिया के विचारों का मानकीकरण हो चुका है.'' वे यहीं नहीं रुकते. उनका यह भी मानना है कि ''मीडिया में संपादक नाम की संस्था का लगभग पूरी तरह से क्षय हो चुका है. मीडिया कारोबार में संपादकीय स्वतंत्रता अब अखबार या चैनल के व्यावसायिक हितों के दायरे से बाहर संभव नहीं है.'' वे बहुत बेलाग होकर कहते हैं कि जो पाठक या दर्शक किसी अखबार या पत्रिका या चैनल की लागत का लगभग 10 से 20 प्रतिशत चुका कर उम्मीद करते हैं कि वे उसे सही सूचनाएं देंगे या उनके हित की बात करेंगे, वे बड़ी गलतफहमी में हैं. मंडल के मुताबिक, पेड न्यूज मीडिया को लगी गंभीर बीमारी का लक्षण मात्र है. वे ऐसे अनेक लक्षणों- प्राइवेट ट्रीटी, मीडियानेट, पी.आर. की खुली घुसपैठ और मीडिया के राडियाकरण आदि की चर्चा करते हुए मीडिया की असली बीमारी उसके व्यावसायिक ढांचे और लक्ष्यों में देखते हैं. यही नहीं, मंडल मीडिया स्वामित्व के मौजूदा कार्पोरेट ढांचे को लेकर अपनी निराशा छिपाते नहीं हैं. उन्हें इस कार्पोरेट मीडिया से कोई उम्मीद नहीं दिखती है. वे मानते हैं कि यह मीडिया पर बाजार और विज्ञापन की विजय का दौर है. निश्चय ही, पेड न्यूज की परिघटना लोकतांत्रिक राजनीति के लिए खतरे की घंटी है. मीडिया का अंडरवर्ल्ड लोकतंत्र की जड़ें खोदने में लगा हुआ है. लेकिन उससे भी बड़ी चिंता की बात मुख्यधारा के समाचार मीडिया का कॉर्पोरव्ट टेकओवर है जो मुनाफे और कॉर्पोरेट हितों को आगे बढ़ाने के लिए खबरों की खरीद-फरोख्त से लेकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में तोड़-मरोड़ करने से भी नहीं हिचकिचा रहा है. हालांकि मंडल इसका कोई समाधान नहीं सुझाते लेकिन सच यह है कि बीमारी की सही पड़ताल से ही इलाज की शुरुआत होती है. इस मायने में इस किताब को एक महत्वपूर्ण शुरुआत माना जा सकता है| 
समीक्षक - आनंद प्रधान किताब का नाम : मीडिया का अंडरवर्ल्ड लेखक : दिलीप मंडल (प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन, दरियागंज,नई दिल्ली-2 कीमतः 350 रु.)




वर्तिका नंदा की किताब 'टेलीविजन और क्राइम रिपोर्टिंग', इंडिया टुडे में प्रकाशित समीक्षा
नब्बे के दशक में मीडिया का स्वरूप बहुत तेजी से बदला. यह वह दौर था जब भारतीय दर्शक दूरदर्शन के फ्रेम से बाहर आकर सैटेलाइट चैनलों की चमक में खोने लगा था. यहीं से बाजार उसे देखने लगा. समाचार की भाषा, मानक, स्वरूप, सरोकार और उसका चयन सब कुछ बदलने लगे. साल 2000 आते-आते अखबार के सेंट्रल डेस्क से लेकर टीवी न्यूजरूम तक सब बाजार की भाषा बोलने लगे. फरमान जारी होने लगे कि 'अगर कुछ बिकता है तो वह है सिनेमा, क्रिकेट और क्राइम. इसी पर फोकस करो.'

इन तीनों में भी क्राइम की पैठ हर जगह बन गई. अखबार में अपराध की खबरें अखबारों और समाचार चैनलों की सुर्खियां बनने लगीं. मीडिया ने भी पारंपरिक परिभाषाओं की सीमाएं तोड़ीं और अपराध की छोटी-बड़ी हर हरकत को सनसनीखेज तरीके से पेश करने लगा. सनसनी के इस समय में अपराध पत्रकारिता का मूल स्वरूप क्या होना चाहिए, यह जानने के लिए वर्तिका नंदा की इस पुस्तक से गुजरना मुफीद होगा.


जानी-मानी मीडिया समीक्षक, पत्रकार और अब दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज में पत्रकारिता विभाग की प्रमुख डॉ. वर्तिका नंदा ने अरसे तक एनडीटीवी के लिए क्राइम रिपोर्टिंग की. फिर वहीं क्राइम टीम की हेड रहीं. नंदा के पके-तपे अनुभव का लेखा-जोखा उनकी यह पुस्तक क्राइम रिपोर्टिंग के जरिए टीवी पत्रकारिता के कई अनिवार्य पहलुओं, मानकों और अंतर्जगत को किसी जहीन अध्यापिका की तरह समझाती है. यह पुस्तक उनकी पहले छपी किताब 'टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता' का व्यवस्थित संस्करण है.

नंदा के कार्यानुभव
की फेहरिस्त देखकर और उनकी इस पुस्तक से गुजरकर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह पुस्तक क्राइम रिपोर्टिंग के जितने सटीक और व्यवस्थित अध्याय पेश करती है वह इससे पहले हिंदी में आई किसी एक पुस्तक में संभव नहीं हो पाया है. पुस्तक में वरिष्ठ पत्रकार मृणाल पांडे ने लिखा है, 'यह किताब हिंदी पत्रकारिता के गंभीर अध्येताओं, विशेषकर टीवी पत्रकारिता के छात्रों के लिए अपराध-पत्रकारिता के अनेक आयाम उजागर करने वाली पठनीय सामग्री देती है.' पुस्तक के आमुख में आइबीएन के एडीटर इन चीफ राजदीप सरदेसाई लिखते हैं, 'वर्तिका नंदा की टीवी और क्राइम रिपोर्टिंग पर यह किताब ट्रेनिंग को लेकर उपजे खालीपन को भरने की तरफ एक बड़ा कदम है. खासकर नए पत्रकारों को इस किताब को अनिवार्य तौर पर पढ़ना चाहिए क्योंकि यह हुनर को निखारने के लिए ही लिखी गई है.'

इन शब्दों की तस्दीक
यूं भी होती है कि सात आसमानों, सात समंदरों, सात रंगों और सात सुरों से प्रेरित नंदा ने इस पुस्तक में टीवी क्राइम रिपोर्टिंग जैसे गूढ़ विषय को समझाने के लिए अध्याय भी सात ही रखे हैं. पहला-न्यूज मीडिया और अपराध पर केंद्रित है, तो दूसरे में क्राइम रिपोर्टिंग की योग्यता और तैयारी पर फोकस किया गया है. तीसरा खबरों के स्त्रोत खोजना सिखाता है, तो चौथे अध्याय में न्यूजरूम का व्याकरण पढ़ा जा सकता है. पांचवें और छठे अध्याय में क्रमशः समाचार लेखन और टीवी न्यूज में प्रोडक्शन और तकनीक की तकनीक समझाई गई है, तो सातवां अध्याय इंटरव्यू, प्रेस कॉन्फ्रेंस और एंकरिंग की तैयारी करवाता है.

पुस्तक में पवन
के रोचक कार्टूंस के जरिए स्पॉट के नजारे और हालात हैं, तो अंत में सिनेमा के लाइट, कैमरा, ऐक्शन से कहीं आगे टीवी की वह बारीक-से-बारीक शब्दावली है जो अगर छात्र टीवी मीडिया में आने से पहले सीख लें तो फील्ड में शायद ही कभी शर्मिंदा होना पड़े.

अकबर इलाहबादी
ने कहा थाः खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो/ जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो. पत्रकारिता के निष्पक्ष, ईमानदार, ताकतवर दौर की अलमबरदार ये पंक्तियां आज की पत्रकारिता पर कही जाएं तो शायद कुछ यूं होंगीः देखो न उसूलों को, न सच्चाई खंगालो/ बाज़ार मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो. नंदा की यह पुस्तक अपराध पत्रकारिता के मानकों को नए सिरे से समझाती है.

मुसलमनों को सवाब चाहिए विकास नहीं ?

अजमेर में ख़व्जा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर सालाना उर्स चल रहा है। लाखों की तादाद में मुसलमान बसों मे भर-भर कर अजमेर पहुंच रहे हैं। इनमें बड़ी तादाद में औरते और बच्चें भी शामिल हैं। क़रीब ढाई महीने पहले मार्च में मक्का से हरम शरीफ़ यानि ख़ाना-ए-काबा के इमाम भारत आए तो उनके पीछे नमाज़ पढ़ने के लिए लाखों मुसलमान 100-200 किलोमीटर दूर तक से दिल्ली और देवबंद पहुंच गए। इससे पहले फरवरी में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ज़िला बिजनौर में हुए तब्लीग़ जमात के तीन रोज़ा इज़्तमा में 11 लाख लोगों के लिए पंडाल का इंतज़ाम किया गया था लेकिन वहां 25 लाख से ज़यादा लोग पहुंचे। हज़ारों लोग काम-काज छोड़ कर कई हफ़्तों तक इज़्तमा में आने वालों की ख़िदमत में लगे रहे। इससे पता चलता है कि धार्मिक आयोजनों को कामयाब बनाने के लिए मुसलमान किस हद तक दिलोजान से तन मन धन लगाकर काम करते हैं।अब ज़रा तस्वीर के दूसरे रुख़ पर ग़ौर करें। पिछले दिनों सहारनपुर में पिछड़े वर्गों के विकास का एजेंडा तय करने और उसे राजनीति की मुख्यधारा में लाने के लिए एक सम्मेलन हुआ। इसमें लागू करने की मांग के साथ सत्ता में हिस्सेदारी का सवाल भी शामिल था। इसमें बमुश्किल तमाम पच्चीस  मुसलमान पहुंचे। इसके अगले दिन बिजनौर में पसमांदा मुसलमानों का सम्मेलन हुआ स्थानीय लोगों ने पांच हज़ार से ज़्यादा की भीड़ जुटाने का ऐलान किया था लेकिन सम्मेलन में कुल जमा 100 लोग भी नहीं पहुंचे। 2009 मार्च में दिल्ली में लोकसभा चुनाव से पहले मुसलमानों के तमाम संगठनों ने मिलकर दिल्ली के रामलीला मैदान में रैली की। रैली का एजेंडा था मुसलमानों की सत्ता में हिस्सेदारी, इनके विकास के लिए जस्टिस सच्चर कमेटी और जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिशों पर अमल की मांग। इस रैली में लोगों को लाने के लिए बड़े पैमाने पर बसों का इंतज़ाम किया गय़ा था। लोगों के बैठने के लिए 50 हज़ार कुर्सियों का इंतज़ाम था लेकिन रैली में दो हज़ार लोग भी नहीं पहुंचे। लेकिन ढाई महीने पहले इसी रामलीला मैदान में इमाम-ए-हरम के पीछे नमाज़ पढ़ने वाली की ऐसी भीड़ उमड़ी कि पैर रखने की भी जगह नहीं बची। धार्मिक आयोजनों के मौक़ों पर मुसलमानों का जोश बल्लियों उछलता है। लेकिन जब समाज में  प्रतिष्ठा पाने के लिए तालीमी और सियासी बेदारी का मामला आता है तो ये जोश बर्फ़ की तरह ठंडा पड़ जाता है। शबेरात को नफ़िल नमाज़ पढ़ने के लिए मुसलमान रात-रात भर जागते हें। क़ब्रिसतान में जाकर फ़ातिहा पढ़ते है। रमज़ान में दिन भर टोपी सिर से नहीं उतरती। तरावीह पढ़ने के लिए दूर-दूर तक चले जाएंगे। लेकिन जब समाजाकि, तालीमी और सियासी बेदारी के लिए काम करने का मसला आता है तो लोगों को अपने रोज़गार की फ़िक्र सताने लगेगी। फ़िक्र भी ऐसी मानों अगर एक दिन काम नहीं कररेंगे तो शाम को घर में चूल्हा नहीं जलेगा। उनका परिवार भूखा मर जाएगा। लेकिन ऐसे तर्क देने वाले लोग धार्मिक आयोजनों को कामयाब बनाने के लिए दिन रात एक कर देते हैं। इस लिए ताकि वो सवाब कमा सकें। सवाब मिलेगा। ज़रूर मिलेगा। लेकिन कब ? मरने के बाद। किसको कितना सवाब मिलेगा इसका फ़ैसला क़यामत के दिन होगा। क़यामत कब आएगी भी किसी को पता नहीं। सवाब के चक्कर में मुसलमान अपनी दुनियादारी की वो तमाम ज़िम्मेदारी भूल जाते हैं जिन्हें निभाना फ़र्ज़ है। नबी-ए-करीम हजरत मुहम्मद (सअव) ने तालीम हासिल करने को हर मर्द और औरत पर फ़र्ज़ बताया। ये भी कहा कि तालीम हासिल करो चाहे चीन जाना पड़े। लेकिन यहां किसी को उन मुसलमानों के बच्चों की तालीम फ़िक्र ही नहीं है जो ग़ुरबत की वजह से अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में नहीं भेज सकते। सरकार ने मुफ़्त तालीम को ज़रूरी बना दिया है। मुसलमानों के विकास के लिए बड़ी-बड़ी योजनाएं बनती है। सच्चर कमेटी की सिफ़ारिशों पर अमल के लिए सरकार ने क़रीब 40 हज़ार करोड़ रुपए का बजट दिया है। लेकिन उन पर अमल नहीं हो पा रहा। अमल हो जाए तो मुसलमानों की आने वाली नस्लों की तक़दीर संवर जाए। जमहूरियत में ताक़त दिखा कर ही अपने हक़ में फ़ैसले कराए जाते हैं। लेकिन अपनी ताक़त दिखाने में मुसलमान सबसे पीछे है। मुट्ठी भर गुर्जर और जाट जब चाहते हैं सड़कों और रेल की पटरियों पर बैठ कर जिस सरकार को चाहते है झुका देते हैं। अण्णा हज़ारे और बाबा रामदेव नें चंद लाख लोग इकट्ठे किए और यूपीए सरकार की चूलें हिला दीं। लेकिन धार्मिक आयोजनों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने वाले मुसलमान जस्टिस सच्चर कमेटी और जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफ़ारिशें लागू कराने की मांग करने के लिए एक दिन के लए दिल्ली के रामलीला मैदान या जंतर मंतर पर नहीं आ सकते। क्योंकि इन्हें अपनी आने वाली नस्लों के विकास से कोई मतलब नहीं है इन्हें तो बस अपने लिए जन्नत में जगह और ढेर सारा सवाब चाहिए।
दरअसल धार्मिक रहनुमाओं ने मुसलमानों को घुट्टी पिला रखी है कि ये दुनिया फ़ानी है। इसके बाद यानि मरने के बाद आख़िरत की ज़िंदगी शुरू होगी जो कभी ख़त्म नहीं होगी। दुनिया को छोड़ कर बस उसी के लिए काम करो। मुस्लिम समाज का एक बड़ा तबक़ा इसी बहकावे में आकर दुनिया और दुनियीदारी की अपनी तमाम ज़िम्मेदारियां भुला बैठा है। ये तबक़ा तालीम की कमी और नासमझी में धार्मिक रहनुमाओं का एजेंड़ा पूरा करने में जुटा हुआ है। हैरानी की बात ये है कि इनमें से ज़्यादातर मुसलमान पसमांदा बिरादरियों (पिछड़े वर्गों) के हैं। धार्मिक आयोजनों को कामयाब बनाने के लिए लाखों का तादाद मे जमा होने वाले मुसलमानों में 90 फ़ीसदी पसमांदा तबक़े के मुसलमान ही होते है। ये अपना क़ीमती वक़्त बर्बाद करते हैं। पैसा बर्बाद करते हैं। और इन्हें मज़हबी जुनून मे अंधा करने वाले मज़े लूटते हैं। ताज्जुब की बात है कि ये सभी अशराफ़िया तबक़े से होते हैं। मुसलमानों के तमाम धार्मिक संगठनों और मसलकी संगठनों पर अशराफ़िया तबक़े के मुसलमान क़ाबिज़ है। कामयाब धार्मिक आयोजनों के आधार पर ये तमाम संगठन मुस्लिम देशों से बेहिसाब पैसा इकट्ठा करते हैं। ये सारा पैसा ज़कात और ख़ैरात के रूप में ग़रीब मुसलमानों की मदद के लिए आता है। लेकिन उन तक पहुंचने के बजाए के मुस्लिम संगठनों के रहनुमाओं की तिजोरियों में पहुंच जाता है।
धार्मिक रहनुमाओ नें मुसलमानों को ज़मीन से नीचे (क़ब्र के अज़ाब) और आसमान के उपर की बातों में ऐसा उलझा रखा है कि ज़्यादातर मुसलमान दुनिया में आने का असली मक़सद ही भूल बैठे है। सवाब कमाने के चक्कर में वो अपने विकास से ग़ाफ़िल हो जाते हैं। धार्मिक रहनुमाओं की इस दकियानूसी सोच और मुसलमानों को पॉछड़ा रखने की साज़िश के ख़िलाफ समाज में आवाज़ भी नहीं उठती। कभी कोई आवाज़ उठाने की कोई हिम्मत करता भी है तो फ़तवे जारी करके उसकी आवाज़ दबा दी जाती है। या फिर डरा धमका पर उसे चुप करा दिया जाता है। इसका सबसे बड़ा शिकार पसमांदा मुसलमान हो रहे हैं। संसद और विधानसभाओं में उनकी कोई रहनुमाई है नहीं। अशराफ़िया तबक़े की रहनुमाई वाले मुस्लिम संगठन कभी उनके हक़ की बात नहीं करते। इसके उलट वो मुस्लिम हितों के नाम पर धार्मिक मसलों पर सरकारों से डील करने में लगे रहते हैं। उनके अपने बच्चों की पढ़ाई लिखाई के लिए बढ़िया पब्लिक स्कूल बने हुए हैं। इनकी फ़ीस इतनी ज़्याद होती है कि आम पसमांदा मुसलमान इतनी फ़ीस दे नहीं सकता। ये तमाम संगठन मिलकर मुफ़्त शिक्षा के क़ानून के दायरे से खुद को बाहर रखने की मांग कर रहे हैं। ताकि ग़रीब पसमांदा मुसलमान वक़्फ़ बोर्ड की मुफ़्त जमीन पर चलने वाले इनके हाइ प्रोफ़ाइल स्कूलों में मुफ़्त शिक्षा क़ानून के नाम पर दाखिले का दावा ही न कर सके। पसमांदा मुसलमानों के लिए इन्होंने हर मस्जिद की बग़ल में एक मदरसा बना दिया है। मदरसे के बाद तमाम दारुल उलूम हैं जहां इनके लिए मज़हबी तालीम तैयार है। ताकि ग़रीब और पसमांदा मुसलमान मज़हबी तालीम हासिल करके मस्जिद में मुज़्ज़न और इमामत कर सकें।
सवाल ये है कि आख़िर कब तक अंधेरे से उजाले की तरफ़ लान वाले इस्लाम मज़हब को मानने वाले मुसलमान ख़ुद गुमराही के अंधेरे में पड़े रहेंगे..? ख़ासकर पसमांदा मुसलमानों को अब सोचना होगा कि वो धार्मिक संगठनों की ख़ुशहाली के लिए कब तक अपना ख़ून पसीना बहाते रहेंगे। जन्नत में जगह और सवाब के साथ अगर उनके बच्चों को दुनिया में इज़्ज़त भी मिल जाए तो क्या हर्ज़ है। इसके लिए करना सिर्फ़ इतना है कि जिस तरह ये धार्मिक आयोजनों के कामयाब बनाने के लिए तन, मन और धन से जुट जाते हैं। उसी तरह समाजी, तालीमी और सियासी बेदारी वाले कार्यक्रमों को कामयाब बनाने के लिए भी ऐसा ही जोश दिखाएं तो आने वाली पीढ़ियों की क़िसम्त संवर जाएगी। नहीं तो आने वाली नस्लें हमें कभी माफ नहीं करेंगी। हमें अपने दिल पर हाथ रख कर सोचना चाहिए कि कहीं हम सवाब के लिए विकास की क़ुर्बानी तो नहीं दे रहे ?
 
( यूसुफ़ अंसारी)लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सलाम इंडिया न्यूज़ के संपादक हैं। उनसे उनके मोबाइल 9811512904 पर या उनके
E-mail: yusufansari@salaamdia.co.in पर संपर्क किया जा सकता है।)

डॉ.अम्बेडकर और सामाजिक क्रान्ति

यह सर्वविदित है कि बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर का जन्म भारत की सामाजिक, वर्ण-व्यवस्था के अनुसार अतिशूद्र, अन्त्यज मानी जाने वाली महार जाति में हुआ था। इस ब्राह्मणी व्यवस्था के अनुसार �अछूत� मानी जाने वाली इन जातियों के लोगों को छूने से भी �पाप� लगता था। इस व्यवस्था के अनुसार तथाकथित उच्चवर्णीय लोग इन जातियों के लोगों की छाया से भी दूर रहते थे। इसी कारण इनका मार्ग पर चलने का भी समय दिन के बारह-एक बजे निर्धारित था। चूँकि उस समय सूर्य की धूप सिर पर रहती है और लोगों की लम्बी परछाई नहीं पड सकती, इसलिए इनकी छाया उन पाखण्डी लोगों तक नहीं पहुँच पाती थी।
इन लोगों के ब्राह्मणी धर्म में व्यक्ति की योग्यता का कोई महत्त्व नहीं होता। महत्त्व होता है जाति का। जो जन्म से ही निर्धारित हो जाती है। व्यक्ति के पैदा होते ही उसकी जाति के अनुसार उसकी सामाजिक स्थिति का निर्धारण हो जाता है। जाति ही उसकी योग्यता का मापदण्ड होती है। इसी कारण डॉ.बाबा साहब जैसे महान् विद्वान्, विश्वविभूति को जाति के अभिशाप के कारण इस हिन्दू धर्म अर्थात् ब्राह्मणी धर्म में कितना अपमान सहना पडा, यह किसी से छिपा नहीं है।
डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर इस धर्म की क्रूरता और अपमान से इतने आहत हुए कि उन्हें १३ अक्टूबर, १९३५ को येवला जिले में सार्वजनिक रूप से यह घोषणा करनी पडी कि ��मैंने हिन्दू धर्म में जन्म अवश्य लिया है। यह मेरे वश में नहीं था किन्तु अब मैं हिन्दू धर्म में मरूँगा नहीं। यह मेरे वश में है।��
डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर जैसे व्यक्ति को हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म क्यों ग्रहण करना पडा*? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका एक ही उत्तर है, वह है हिन्दू धर्म में निहित व्यवस्थाएँ, जो न्याय और समता पर आधारित नहीं होकर भेदभाव पर आधारित हैं।
हिन्दू धर्म की ये आत्मघाती व्यवस्था ही भारतीय समाज को जड बनाए हुए है। बाबा साहब ने देखा कि कट्टर हिन्दू धर्मावलम्बी इन व्यवस्थाओं को बदलने के लिए तैयार नहीं है तो उन्होंने इस छेद वाली नाव को छोडकर बेहतर आश्रय प्राप्त करना उचित समझा।
डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर के १९३५ में हिन्दू धर्म छोडने की इस घोषणा के २१ वर्ष बाद १४ अक्टूबर, १९५६ को नागपुर में अपने पाँच लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली। इन इक्कीस वर्षों के लम्बे अन्तराल में क्या बाबा साहब अम्बेडकर जैसे महान् चिन्तक, विचारक, सामाजिक परिवर्तक चुप रहे होंगे। नहीं, वे चुप नहीं रहे। वे बराबर इस अन्यायपरक सामाजिक व्यवस्था को बदलने की सोचते रहे।
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर द्वारा इतने विशाल जनसमूह के साथ किया गया यह धर्मान्तरण महज एक धर्मान्तरण नहीं था। यह इस देश में सामाजिक क्रान्ति की शुरुआत थी, जिसका सपना बाबा साहब ने देखा था। एक वर्ण विहीन, जाति विहीन समाज का सपना, जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुता पर आधारित था।
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर धर्म को व्यक्तिगत सरोकार नहीं मानकर सामाजिक सरोकार मानते हैं। वे धर्म की आवश्यकता को भी स्वीकार करते हैं। ऐसा नहीं होता तो वे धर्मान्तरण नहीं करते, केवल हिन्दू धर्म का त्याग भर करते, बौद्ध धर्म को अंगीकार नहीं करते और न ही इतना विशाल आयोजन करते।
उस ऐतिहासिक घटना के विशाल आयोजन की मात्र एक झलक प्रस्तुत है -
दशहरा का दिन था। बहुजन समाज के लाखों स्त्री-पुरुष, बाल, वृद्ध नागपुर की दीक्षा भूमि की ओर पानी के रेले की तरह बढे जा रहे थे। इनके लिए बाबा साहब किसी साक्षात् भगवान से कम नहीं थे। बाबा साहब के प्रति उनकी अपार श्रद्धा थी। बाबा साहब जैसे महापुरुष ने ही उनके हजारों वर्षों से नकारे जाते रहे मानव अधिकारों को बहाल करने के लिए लम्बा संघर्ष करके उसमें सफलता प्राप्त की थी।
दीक्षा भूमि पर लगभग पाँच लाख लोगों का सैलाब उमडा था। वे बाबा साहब का बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे। कुछ ही क्षणों बाद बाबा साहब ने श्वेत रेशमी धोती और श्वेत कोट में पत्नी सविता के साथ दीक्षा भूमि में प्रवेश किया और मंच पर पहुँच गएँ कुशीतारा के भिक्षु चन्द्रमणी द्वारा उन्हें दीक्षा प्रदान की गई।
इस दीक्षा ग्रहण के बाद अपने द्वारा तैयार की गई २२ प्रतिज्ञाओं को बाबा साहब ने उपस्थित विशाल जन समुदाय को सम्बोधित करते हुए पढा।
अपने सम्बोधन के पश्चात् जब बाबा सहाब ने उस विशाल जन समुदाय का आह्वान किया कि जो बौद्ध धर्म ग्रहण करना चाहते हैं, वे खडे हो जाएँ तो पूरा का पूरा जन सम्प्रदाय खडा हो गया। इस प्रकार यह मात्र धर्म परिवर्तन की घटना नहीं होकर एक ऐतिहासिक घटना बन गई। यह सामाजिक क्रान्ति का, अन्यायपरक सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन का उद्घोष था।
इससे प्रमाणित होता है कि बाबा साहब अम्बेडकर धर्म को �सामाजिक विरासत� मानते हैं तथा उसकी आवश्यकता को स्वीकारते हैं। बाबा साहब ने कहा था, ��मनुष्य को जीवित रहने के लिए केवल भोजन की आवश्यकता ही नहीं होती। उसके पास मस्तिष्क भी होता है जिसके लिए विचारों की खुराक आवश्यक है।�� उनके अनुसार मनुष्य की इस मानसिक भूख को मिटाने के लिए धर्म महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अतः धर्म को सामाजिक, नैतिकता पर आधारित सामाजिक मूल्यों के आधार पर जाँचा-परखा जाना चाहिए।
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर जैसे विद्वान, न्यायविद और समाज सुधारक द्वारा इस प्रकार हिन्दू धर्म का परित्याग करना इस धर्म की घोर विसंगतियों और सामाजिक पाखण्ड की एक तीव्र प्रतिक्रिया थी। जिस महान् पुरुष में भारत का संविधान रचने की सामर्थ्य हो, उसे मात्र इसी कारण एक निरक्षर भट्टाचार्य एवं संस्कारविहीन ब्राह्मण से नीच माना जाता रहे कि वह एक महार के घर में पैदा हुआ है। इससे बडा सामाजिक अन्याय और क्या होगा और इस अन्याय का प्रतिकार बाबा साहब ने हिन्दू धर्म का त्याग कर दिया।
बाबा साहब हिन्दू धर्म के अन्याय और भेदभाव पर आधारित नियमों के प्रति आस्थावान नहीं थे। वे सच्चे धर्म के रूप में उसे सिद्धान्तों पर आधारित धर्म बनाना चाहते थे इसके लिए उन्होंने पाँच अनिवार्यताएँ बनाई थीं, ��१. हिन्दू धर्म के लिए एक मानक शास्त्र हो, २. पुजारियों की नियुक्तियाँ वंश के आधार पर नहीं होकर खुली परीक्षा के माध्यम से हों, ३. पुजारी के लिए राज्य की सनद आवश्यक हो, ४. कानूनन पुजारियों की संख्या निर्धारित हो,५. पुजारियों के चरित्र, विश्वास और पूजा का सरकार पर्यवेक्षण करे।
१४ अक्टूबर,१९५६ को वह ऐतिहासिक क्षण था जब बाबा साहब ने दीक्षा लेकर अपने करीबी अनुयायियों के लिए मानवतावादी बौद्ध धर्म का मार्ग प्रशस्त किया। बाबा साहब ने सब धर्मों की बहुत अच्छी तरह जाँच परख करके ही भारत भूमि पर उपजे अपने ही बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और भारतीय धर्म निरपेक्ष संविधान का पूरी तरह से पालन किया। उनके द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा लेना ही अपने आप में बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय और प्रज्ञा-शील करुणा पर आधारित सुदृढ सोपान है।
बाबा साहब जब बैरिस्टर बन कर स्वदेश लौटे थे तो उनके मन में एक ही साध थी, भारत की एक तिहाई जनसंख्या को छुआछूत की घृणित अवस्था से मुक्त कराना। अछूतों को आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक समानता दिलाने में वे अपना सब कुछ लगा देने को कटिबद्ध थे।
जिस पीडा को, जिस अपमान को उन्होंने भोगा था, अपने जीवन काल में कदम-कदम पर हिन्दू धर्म की रूढ व्यवस्थाओं के जो घाव उन्होंने झेले थे उसे वे कैसे भूला सकते थे*? जब उन जैसे उच्च शिक्षित, व्यक्ति के साथ यह अंधा समाज इस तरह पेश आता है तो गाँव में रहने वाले दीन-दुर्बल और अनपढ बन्धु की क्या स्थिति हो सकती है*? इसका अनुमान वे सहज ही लगा सकते थे। उन्हें ऐसी व्यवस्थाओं के प्रति कोई आसक्ति नहीं थी जिसमें मनुष्य को पशुओं से भी बदतर समझा जाता
है। वे नहीं चाहते थे कि उनकी आने वाली पीढी ऐसी समाज व्यवस्था को मानती रहे।
हिन्दू समाज में व्याप्त ऊँच-नीच और छुआछूत संबंधी अमानवीय व्यवस्था विरोधी आंदोलनों का एक लम्बा क्रम उपलब्ध है। इसी क्रम में बाबा साहब अम्बेडकर भी भारतीय समाज से इस कलंक कालिमा को मिटाने के लिए सामाजिक क्रान्ति करने के लिए कृतसंकल्प थे।
धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक समता के प्रबल पक्षधर बाबा साहब अम्बेडकर ने जीवन भर इसके लिए संघर्ष किया। संघर्ष के इस दौर में उन्होंने यह नहीं देखा कि वे जिनसे संघर्ष कर रहे हैं, वे कौन हैं*? चाहे वह सम्पूर्ण हिन्दू समाज हो या विशाल औपनिवेशिक साम्राज्य का धनी ब्रिटिश राज या महात्मा गाँधी जैसा महामानव।
हिन्दू धर्म के परित्याग के उनके इस निश्चय के पीछे कोई दुर्भावना नहीं थी। यह कोई प्रतिक्रिया नहीं थी, बल्कि एक ललक थी, एक इच्छा थी कि हिन्दू समाज उनके इस दर्द को, उस व्यथा को समझेगा तथा अपनी संकीर्णताओं को समाप्त करेगा, जडताओं को त्यागेगा, किन्तु ऐसा नहीं हुआ, इसी कारण उन्हें धर्मान्तरण का मार्ग अपनाना पडा।
वे हिन्दू धर्म विरोधी कतई नहीं थे। वे हिन्दू धर्म के दोहरे मानदण्डों के विरोधी थे। हिन्दू कोड बिल पारित कराने के उनके अथक प्रयासों के पीछे भी एक ही उद्देश्य था कि इस धर्म में जो विसंगतियाँ हैं, वे दूर हो सकें और सब हिन्दू एक �कॉमन पर्सनल लॉ� से नियंत्रित हों।
नागपुर में ही एक विशाल जनसमुदाय को सम्बोधित करते हुए बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने कहा था, ��लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने यदि अछूत वर्ग में जन्म लिया होता, एक अछूत की पीडा को भोगा होता तो वे �स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, इसे मैं लेकर रहूँगा� का नारा बुलन्द करने के स्थान पर यह नारा बुलन्द करते कि �समानता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, इसे मैं लेकर रहूँगा।��
बाबा साहब के इन हृदयोद्गारों से स्पष्ट ध्वनित होता है कि वे राजनीतिक स्वतंत्रता की अपेक्षा सामाजिक समानता को महत्त्वपूर्ण मानते थे। स्वतंत्रता की लडाई में वे देश के बडे नेताओं के साथ मिलकर प्रयास कर रहे थे। किन्तु साथ ही वे यह भी मानते थे कि मानवीय समानता के अधिकार की गारण्टी के बिना स्वतंत्रता अधूरी है। उनका कहना था, सामाजिक, आर्थिक समानता के बिना स्वतंत्रता का लाभ पिछडों तक नहीं पहुँचेगा। इसलिए वे समानता के लिए संरक्षण की गारण्टी चाहते थे।
बाबा साहब ने वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों का गहन अध्ययन करके अपने लेखों और पुस्तकों द्वारा यह प्रमाणित कर दिया कि हिन्दू धर्म में छुआछूत के लिए कोई स्थान नहीं है। उन्होंने प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध किया कि मनुष्य जन्म से ब्राह्मण व अछूत नहीं होता, वह कर्मों से ब्राह्मण और अछूत बनता है। इसलिए वर्ण व्यवस्था की प्रबल प्रतिपादक �मनुस्मृति� को डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर ने लाखों के जन समूह के बीच जलाकर उसकी मान्यताओं का विरोध किया था। इनकी योग्यता, विद्वत्ता व गुण ग्राह्यता के कारण ही पंडित नेहरू ने इन्हें अपने मंत्रिमण्डल में भारत के प्रथम विधि मंत्री के रूप में शामिल किया था। यही नहीं, भारत जैसे विशाल देश का संविधान निर्माण का महान् दायित्व भी उनके सक्षम कंधों पर डाला गया, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। संविधान में उन्होंने देश के प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्रता, समानता, न्याय दिलाने का पूरा-पूरा ध्यान रखा।
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर की गिनती विश्व के महानतम छः विद्वानों में होती है। भारतीय बौद्ध जगत् में उन्हें बौद्ध धर्म का उन्नायक माना जाता है। यह कोई अतिश्योक्ति नहीं वरन् एक सच्चाई है। उनके द्वारा लिखित ग्रंथ �बुद्ध और उनका धम्म्� का विश्व बौद्ध जगत् में विशिष्ट स्थान है।
यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि बाबा साहब ने बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों को अपनाया था, उसकी रूढयों को नहीं। यह उनके नागपुर के दीक्षा समारोह के अवसर पर दिए गए वक्तव्य से स्पष्ट हो जाता है। वे बौद्ध धर्म में प्रचलित हीनयान और महायान के परम्पराओं को नहीं मानते थे। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि धर्म सिद्धान्तों और नैतिकताओं का नाम है, रूढयों का नहीं। बुद्ध की क्रान्ति के बाद भारत में बाबा साहब के इस धर्मान्तरण से ही सामाजिक क्रान्ति का शंखनाद फूँका है और इस सडी-गली सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन का बिगुल बजा है। विश्व में ऐसी कोई विचारधारा नहीं जो समानता, स्वतंत्रता और बन्धुता की इस क्रान्तिकारी विचारधारा से बढकर हो और इसे काट सके। इसलिए यह धर्मान्तरण महज धर्मान्तरण नहीं वरन् एक महान् सामाजिक क्रान्ति की शुरुआत है।

चैनलों के अंदर की दुनिया


वेतन और सेवाशर्तों से लेकर न्यूजरूम के अंदर के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं

पहली किस्त

चैनल में काम करना ईंट भट्ठे पर काम करने जैसा लगता है..या कोयले के इंजन का ड्राइवर जैसे गर्मी में आग के सामने कोयला डालता था, बिना रूके..इस डर से की इंजन बंद हो जाएगा...वैसा ही अनुभव कराता है तथाकथित न्यूज रूम...पत्रकारिता त्याग मांगती है लेकिन ऐसा त्याग क्या कि एक सैनिक बार्डर पर नहीं...बल्कि अपने ही बैरक में गोली का शिकार हो जाए.”

“न्यूजरूम का माहौल: भेड़ बकरी चराने वाले जैसे चीखते हैं ....जानवरों को हांकने में वैसा ही कुछ बॉस चीखते हैं...जैसे चीख कर ही जूनिएर की कान में आवाज पहुंचाई जा सकती हो..क्या चीख चिल्ला कर ही काम किया जा सकता है?...क्या ऐसे अम्बिएंस में काम कर सकना लम्बे समय तक संभव है ?...न्यूज़ रूम और बॉस की नज़र में अपनी ब्रांडिंग करने का सबसे आसान तरीका चीखना चिल्लाना...अधिकांश लोग अपनी जानकारी और लिखने की कला को छोटा समझने लगे है और चीखने चिल्लाने को बड़ा...काश, मैं भी चीख सकता...की भावना आ रही है लोगो में..लगातार न्यूज़ परोसने के दबाव में नाम पर न्यूज़ रूम को टोर्चेर रूम बनाया जा रहा है..”

-एक न्यूज चैनल में कार्यरत युवा रिपोर्टर

“मैं अपने आपको रोज जलील होते देखता हूँ तो लगता है कि शायद सभी को ये सब सहना होता होगा, पर फिर लगता है कि शायद हमने ही पढाई नहीं की होगी..ऐसे ही हमें भर्ती कर लिया गाली सुनने के लिए...मैं अपना विश्वास खो रहा हूँ...शायद ये इलेक्ट्रानिक मीडिया का विनोद कापडी कल्चर है जो कुछ चैनलों के खून में बस चुका है और टी.आर.पी नामक अस्पताल में हमारा इलाज तो संभव नहीं...”

- चैनल छोड़ चुके एक युवा पत्रकार की व्यथा जो उसने मीडिया स्टडीज ग्रुप के सर्वेक्षण के दौरान बताई


ये कुछ बानगियाँ हैं जो बताती हैं कि आज न्यूज चैनलों के अंदर काम करनेवाले पत्रकारों की क्या स्थिति है? चैनलों में ऐसी आपबीतियों की कमी नहीं है. आप चैनलों के पत्रकारों से न्यूजरूम के अंदर कामकाज की परिस्थितियों के बारे में पूछिए और सम्भावना यह है कि लगभग ६० से ७५ प्रतिशत टी.वी पत्रकारों से आपको ऐसी ही शिकायतें और आपबीती सुनने को मिले.

इसमें कोई शक नहीं है कि न्यूज चैनलों के बीच गलाकाट प्रतियोगिता के कारण न्यूजरूम के अंदर पत्रकारों पर खासा दबाव और तनाव रहता है लेकिन यह दबाव और तनाव हाल के वर्षों में जिस तरह से बढ़ा है, उसका सीधा असर पत्रकारों के स्वास्थ्य और कामकाज पर भी पड़ रहा है.

हालांकि न्यूज चैनलों के अंदर के इस दमघोंटू माहौल के बारे टी.वी पत्रकारों खासकर युवा पत्रकारों के बीच कानाफूसियाँ बहुत दिनों से होती रही हैं. लेकिन पिछले महीने जब मैंने फेसबुक, गूगल-बज और आई.आई.एम.सी पूर्व छात्र ग्रुप मेल पर टी.वी पत्रकारों से उनके वेतन, सेवाशर्तों और कामकाज की परिस्थितियों के बारे में उनकी राय मांगी तो विभिन्न चैनलों के अनेकों टी.वी पत्रकारों ने लिखित और मौखिक रूप में जो बताया, वह कई मामलों में भयावह और रोंगटे खड़े कर देनेवाला और अधिकांश मामलों में चिंतित और परेशान करनेवाला है. उसकी कुछ बानगियाँ ऊपर दी हैं और जगह की कमी के कारण कई छोड़नी पड़ रही हैं.

असल में, चैनलों के स्क्रीन पर दिखने वाली खबरों, रिपोर्टों और कार्यक्रमों, चैनलों के नजरिये और प्रस्तुति को लेकर जितनी चर्चा होती है, उसका एक प्रतिशत भी चैनलों के अंदर की दुनिया और उसके पत्रकारों की स्थिति पर चर्चा नहीं होती है. जबकि चैनलों के अंदर के माहौल और पत्रकारों के वेतन और अन्य सेवाशर्तों का उनके कामकाज पर सीधा असर पड़ता है.

आखिरकार ये गेटकीपर (पत्रकार) ही चैनलों की व्यापक सम्पादकीय लाइन के तहत रोजाना खबरों के चयन से लेकर उनकी प्रस्तुति का फैसला करते हैं. ऐसे में, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि उनकी मानसिक और शारीरिक स्थिति निश्चित ही उनके कामकाज को प्रभावित करती है.

इसके बावजूद चैनलों के अंदर न्यूजरूम के माहौल और उसमें कार्यरत पत्रकारों के वेतन और सेवाशर्तों को चर्चा के लायक नहीं समझा जाता है. न्यूज मीडिया में इसे लेकर जिस तरह की ख़ामोशी और अनदेखा करने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है, वह काफी हद तक एक तरह की ‘षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी’ है. कुछ चुनिन्दा चैनलों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश चैनलों में पत्रकारों की स्थिति अच्छी नहीं है और उन्हें भारी तनाव और दबाव में काम करना पड़ता है.

वेतन और सेवाशर्तों के मामले में भी स्थिति दिन पर दिन बिगड़ती जा रही है. खासकर २००८-०९ की आर्थिक मंदी के बाद हुई छंटनियों के कारण काम का बोझ बढ़ता जा रहा है. लेकिन इसपर चर्चा और सुधार के बजाय चैनलों का प्रबंधन यहाँ तक कि कई संपादक भी मौजूदा स्थितियों का बचाव करते और उसे जायज ठहराते दिख जाते हैं.

सच यह है कि न्यूज चैनलों के पत्रकारों के वेतन, भत्तों, सेवाशर्तों आदि में गंभीर विषमताएं और विसंगतियाँ हैं. वेतन और सेवाशर्तों के मामले में कोई एकरूपता या समानता नहीं है. आमतौर पर अंग्रेजी न्यूज चैनलों में पत्रकारों का वेतन और सेवाशर्तें हिंदी और दूसरी भाषाओँ के न्यूज चैनलों की तुलना में बेहतर हैं.

लेकिन ऐसा नहीं है कि अंग्रेजी न्यूज चैनल में सब कुछ बेहतर ही है. वहां भी काम के घंटों, काम के बोझ और छुट्टियों आदि के मामले में कोई आदर्श स्थिति नहीं है. यही नहीं, कई अंग्रेजी चैनलों खासकर सबसे बडबोले अंग्रेजी चैनल में कामकाज का माहौल बहुत दमघोंटू और तनावपूर्ण है. बात-बात पर गाली-गलौज और अपमानित करने की शिकायतें भी आती रहती हैं.

लेकिन हिंदी न्यूज चैनलों में स्थिति और खराब है. यह सही है कि कुछ बड़े मीडिया समूहों के न्यूज चैनलों में पत्रकारों का वेतन तुलनात्मक रूप में ठीक-ठाक है. लेकिन तथ्य यह भी है कि वेतन वृद्धि के मामले में पिछले दो-ढाई सालों में स्थिति बिगड़ी है. छोटे-बड़े सभी चैनलों ने २००८-०९ की आर्थिक मंदी को बहाना बनाकर न सिर्फ वेतन वृद्धि नहीं की बल्कि बड़े पैमाने पर घोषित-अघोषित छंटनी की और काम का बोझ बढ़ा दिया. ‘स्टाफ रैशनालाइजेशन’ के नाम पर नई भर्तियाँ नहीं हो रही हैं या इक्का-दुक्का भर्तियाँ हो रही हैं. यही नहीं, बड़े और सफल चैनलों में भी निचले और मंझोले स्तर की भर्तियों में वेतन पहले की तुलना में कम हो गया है.

तर्क यह दिया जा रहा है कि न्यूज चैनलों में यह ‘वेतन के रैशनालाइजेशन’ का दौर है. इसके मुताबिक, शुरूआती दौर में टी.वी पत्रकारों खासकर प्रशिक्षित पत्रकारों की कमी के कारण पत्रकारों को प्रिंट मीडिया की तुलना में काफी ऊँची तनख्वाहें मिलीं. उस समय बार्गेनिंग की शक्ति टी.वी पत्रकारों के पक्ष में झुकी हुई थी.

लेकिन प्रबंधकों के अनुसार, यह स्थिति ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकती थी क्योंकि इससे मीडिया उद्योग में वेतन के मामले में एक तरह का ‘डिस्टार्शन’ पैदा हो गया था. कहने की जरूरत नहीं है कि आर्थिक मंदी ने न्यूज चैनलों के मालिकों और प्रबंधकों को इस कथित ‘डिस्टार्शन’ को सुधारने का मौका दे दिया जिसका उन्होंने जमकर फायदा उठाया है.

('कथादेश' के अगस्त अंक में प्रकाशित स्तम्भ की पहली किस्त..बाकी कल)





दोनों सिरों से जल रही है न्यूज चैनलों के पत्रकारों के जीवन की मोमबत्ती


बदतर सेवाशर्तों और कामकाज की परिस्थितियों के कारण बीमार हो रहे हैं न्यूज चैनलों के पत्रकार  

तीसरी और आखिरी किस्त

यही नहीं, चैनलों में इन दबावों और तनावों के कारण पत्रकारों के स्वास्थ्य पर भी बहुत बुरा असर पड़ रहा है. अनिल चमडिया के नेतृत्व में मीडिया स्टडीज ग्रुप ने कोई दो साल पहले मीडिया में काम करनेवाले पत्रकारों के कामकाज की परिस्थितियों और उनके स्वास्थ्य का हाल जानने के लिए सर्वेक्षण किया था जिसके नतीजे बहुत चौंकानेवाले थे. इस सर्वेक्षण के मुताबिक, करीब १२ फीसदी पत्रकार अपनी अनियमित दिनचर्या और काम के तनाव आदि के कारण डायबिटीज के शिकार हैं.

कंप्यूटर पर लगातार काम करने के कारण लगभग १४ फीसदी पत्रकार आर्थोपीडिक यानि पीठ दर्द और आर्थराइटिस आदि से पीड़ित हैं. करीब १२ फीसदी को आँखों की बिमारी है. करीब ६२ फीसदी पत्रकारों को खाने का समय या समय पर खाने का मौका नहीं मिलता है, इसके कारण १३ फीसदी को पाचन सम्बन्धी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है.


इस सर्वेक्षण के मुताबिक, लगभग ६२ फीसदी पत्रकारों को हर दिन आठ घंटे या उससे अधिक काम करना पड़ता है जिसका असर यह हुआ है कि उनमें से कोई ११ फीसदी मानसिक बिमारियों जैसे डिप्रेशन आदि का शिकार हो गए हैं. करीब १४ फीसदी को ह्रदय सम्बन्धी और बी.पी की समस्या से जूझना पड़ रहा है.

लेकिन सबसे अधिक तकलीफ की बात यह है कि उनमें से ४८ फीसदी पत्रकारों को इन बिमारियों के इलाज के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पता है. इसकी वजह छुट्टी न मिल पाना है. इस सर्वेक्षण के अनुसार, ११ फीसदी पत्रकारों को कोई साप्ताहिक अवकाश भी नहीं मिलता. केवल १७ फीसदी पत्रकारों को सप्ताह में दो दिन की छुट्टी का सौभाग्य मिलता है.

हालांकि यह सर्वेक्षण प्रिंट और टी.वी सहित सभी तरह के माध्यमों में काम करनेवाले पत्रकारों पर किया गया था. लेकिन टी.वी. न्यूज चैनलों के पत्रकारों से खुद की बातचीत के आधार पर कह सकता हूँ कि चैनलों में हालात और खराब हैं. मैं ऐसे कई टी.वी कर्मियों को जानता हूँ जो बहुत कम उम्र में बी.पी और डायबिटीज सहित स्पोंडीलाइटीस जैसी बिमारियों/समस्यायों के शिकार हो गए हैं.

इनमें से कई मेरे छात्र रहे हैं. कुछ को मजबूरी में नौकरियां तक छोड़नी पड़ी हैं. निश्चय ही, इसके लिए काफी हद तक चैनलों के अंदर की स्थितियां और कामकाज का माहौल जिम्मेदार है. कई बार ऐसा लगता है कि न्यूज चैनलों में काम करनेवाले पत्रकारों के जीवन की मोमबत्ती दोनों सिरों से जल रही है.

इसके बावजूद इसपर चर्चा करने के बजाय चैनलों के प्रबंधक और कई संपादक यह कहकर इसे ग्लैमराइज करने की कोशिश करते हैं कि न्यूज चैनलों में काम करने का दबाव और तनाव ही टी.वी पत्रकारिता का असली एक्साइटमेंट है. लेकिन यह एक्साइटमेंट अब जानलेवा होने लगा है.

जाहिर है कि यह न टी.वी कर्मियों के लिए अच्छा है और न चैनलों के लिए. अगर यह स्थिति सुधरी नहीं तो चैनलों के लिए योग्य और प्रतिभाशाली पत्रकारों को आकर्षित करना मुश्किल होने लगेगा. यही नहीं, इसका असर चैनलों के कंटेंट पर भी पड़ेगा. हम आम दर्शकों के लिए यह इसलिए भी गहरी चिंता का कारण होना चाहिए.

समय आ गया है जब इस मसले पर टी.वी पत्रकारों और न्यूज चैनलों के प्रबंधकों के बीच खुलकर बातचीत हो जिसमें सरकार और पत्रकार यूनियनों के लोग भी हिस्सा लें. सरकार अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती है. पहली बात तो यह है कि टी.वी पत्रकारों को भी श्रमजीवी पत्रकार कानून के दायरे में लाया जाए और उनकी तनख्वाहें भी अख़बारों के पत्रकारों और गैर पत्रकारों के वेतन आयोग के द्वारा तय की जाएँ.

इसके अलावा चैनलों में पत्रकारों को अपनी यूनियन बनाने का अधिकार भी मिलना चाहिए. यह ठीक है कि आज अधिकांश पत्रकार संगठन और यूनियनें अप्रभावी हो चुकी हैं या प्रबंधन के हाथ की कठपुतली बन चुकी हैं लेकिन इसके बावजूद अधिकांश अख़बारी प्रतिष्ठानों में यूनियनें हैं.

लेकिन क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि किसी भी चैनल में पत्रकारों की कोई यूनियन नहीं है? सवाल है कि क्या चैनल श्रम कानूनों से ऊपर हैं? अगर नहीं तो उनमें सभी श्रम कानूनों और श्रमजीवी पत्रकार कानून की खिल्ली क्यों उडाई जा रही है? यहाँ यह कहना जरूरी है कि ये बहुत महत्वपूर्ण सवाल हैं. इन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता है.

मीडिया अगर लोकतंत्र का चौथा खम्भा है तो उसके अंदर क्या चल रहा है और उसके कर्मियों का क्या हाल है, यह हम सबकी चिंता का विषय होना चाहिए. यह चुप्पी अब टूटनी चाहिए क्योंकि अगर हमने खबर देनेवालों की खबर नहीं रखी तो उनकी खबर और कौन लेगा?

 साभार (तीसरा रास्ता) by

(राष्टीय सहारा के मूवी मशाला सप्लीमेंट में छपा आलेख)http://rashtriyasahara.samaylive.com/newsview.aspx?eddate=7/15/2011%2012:00:00%20AM&pageno=4&edition=16&prntid=40700&bxid=34512578&pgno=4

मीडिया में दलितों के लिए जगह खाली करें द्विज(ब्राह्मण)

भारतीय मीडिया पर द्विजों का कब्जा है और आंकड़े चीख-चीख कर बता रहे हैं कि दलित हाशिये पर हैं। राष्ट्रीय मीडिया पर द्विजों के कब्जे को लेकर जब सर्वे सामने आया तो मीडिया जगत से जुड़े दिग्गजों की नींद उड़ गयी। बराबरी-गैरबराबरी का सवाल उठा। जितने सवाल उठे उससे ज्यादा द्विजों ने अपनी हिलती कुर्सी को खतरे में पाता देख गोलबंद हुए और अपने उपर होते हमले के खिलाफ जवाब देने लगे। गिने चुने ही दलित मीडिया में हैं और वह भी उच्च पदों पर नहीं। ‘राष्ट्रीय मीडिया पर उंची जातियों का कब्जा’ सर्वे, केवल सर्वे नहीं था बल्कि लोकतंत्र को दिशा देने वाले सबसे मजबूत तंत्र मीडिया के द्विज प्रेम की पोल खोली दी थी। इससे मीडिया पर काबिज द्विज बौखला उठे। राष्ट्रीय मीडिया ही नहीं बल्कि राज्य व क्षेत्रीय मीडिया की भी स्थिति भी कमोवेश एक जैसी है। कहा जा सकता है कि हर जगह मीडिया में द्विजों का ही कब्जा बरकरार है और दलित हाशिये पर हैं।आंकडे गवाह हैं कि भारतीय मीडिया में दलित और आदिवासी फैसला लेने वाले पदों पर नहीं है। राष्ट्रीय मीडिया के लगभग 300 प्रमुख पदों पर एक भी दलित और आदिवासी नहीं है। कहा जाता है कि देश व समाज को विकसित करना है तो अंतिम कतार में खड़े हर व्यक्ति को एक साथ लेकर आगे बढ़ना होगा। ऐसे में यह बात मीडिया के साथ भी लागू होती है ? मीडिया पर काबिज द्विज समाज को दलितों के लिए जगह बनानी होगी। बल्कि बराबरी और गैरबराबरी के फासले को मिटाने के लिए दलित पत्रकारों को वह जगह देनी होगी जिसके लिए वर्षो से उन्हें एक साजिश के तहत मीडिया की चारदिवारी के बाहर ही रखी गयी।
देश की कुल जनसंख्या में मात्र आठ प्रतिशत होने के बावजूद द्विजों का मीडिया हाउसों पर 71 प्रतिशत शीर्ष पदों पर कब्जा बना हुआ है। जहां तक मीडिया में जातीय व समुदायगत होने का सवाल है तो आंकड़े बताते हैं कि कुल 49 प्रतिशत ब्राह्मण, 14 प्रतिशत कायस्थ, वैश्य/जैन व राजपूत सात-सात प्रतिशत खत्री नौ, गैर द्विज उच्च जाति दो और अन्य पिछड़ी जाति चार प्रतिशत है। इसमें दलित कहीं नहीं आते। निजी मीडिया में जो भी नियुक्ति होती है वह इतने ही गुपचुप तरीके से कि मीडिया हाउस के कई लोगों को बाद में पता चलता है।
मीडिया हाउस का संपादक/मालिक किस जाति विशेष का है वह साफ झलकने लगता है। आंकड़े/सर्वे चौंकाते हैं, मीडिया के जाति प्रेम को लेकर ! पोल खोलते हैं। जाति गठजोड़ वाले ही केवल, इसमें शामिल नहीं है बल्कि प्रगतिशील बनने वाले मीडिया हाउस या उसे चलाने वाले मालिक/संपादक भी शामिल हैं। अखबारों को उसके नाम के साथ-साथ जाति से जोड़ कर देखा जाता है। खुल कर अपनी जाति के लोगों को मौका दिये जाने के आरोपो के घेरे में आते रहते हैं । ऐसे में मीडिया में बराबरी-गैर बराबरी या यों कहें जाति हिस्सेदारी की बात तो स्वतः संपादकों या मालिकों के जाति प्रेम से उनकी पोल खुल जाती है। पटना के एक पत्रकार प्रमोद रंजन ने ‘‘मीडिया में हिस्सेदारी’’ में साफ कहा कि बिहार की राजधानी पटना में काम कर रहे मीडिया हाउसों में 87 प्रतिशत सवर्ण जाति के हैं। इसमें, ब्राह्यण 34, राजपूत 23, भूमिहार 14 एवं कायस्त 16 प्रतिशत है। हिन्दू पिछड़ी-अति पिछड़ी जाति, अशरफ मुसलमान और दलित समाज से आने वाले मात्र 13 प्रतिशत पत्रकार हैं। इसमें सबसे कम प्रतिशत दलितों की है। लगभग एक प्रतिशत ही दलित पत्रकार, बिहार की मीडिया से जुड़े हैं। वह भी कोई उंचे पद पर नहीं है। महिला सशक्तिकरण के इस युग में दलित महिला महिला पत्रकार को ढूंढना होगा। बिहार के किसी मीडिया हाउस में दलित महिला पत्रकार नहीं के बराबर है। आंकड़े बताते हैं कि दलित महिला पत्रकारों का प्रतिशत शून्य है। जबकि पिछडे़-अति पिछड़े जाति की महिला पत्रकारों का प्रतिशत मात्र एक है। साफ है कि दलित-पिछड़े वर्ग के लोग पत्रकारिता पर हाशिये पर है।
भारतीय परिदृष्य में अपना जाल फैला चुके सेटेलाइट चैनल यानी खबरिया चैनलों की स्थिति भी कमोवेश एक ही जैसा है। यहां भी कब्जा सवर्ण हिन्दू वर्ग का ही है। 90 प्रतिशत पदों पर द्विज काबिज हैं। हालांकि हिन्दू पिछड़ी जाति के सात प्रतिशत, अशराफ मुसलमान तीन एवं महिलाएं 10 प्रतिशत है। यहां भी दलित नहीं है।
मीडिया में दलितों के नहीं के बराबर हिस्सेदारी भारतीय सामाजिक व्यवस्था की पोल खोलने के लिए काफी है। सर्वे या फिर सामाजिक दृष्टिकोण के मद्देनजर देखा जाये तो आजादी के बाद भी दलितों के सामाजिक हालात में क्रांतिकारी बदलाव नजर नहीं आता, बस कहने के लिए राजनैतिक स्तर पर उन्हें मुख्यधारा में लाने के हथकंड़े सामने आते है। जो हकीकत में कुछ और ही बयां करते हैं।
जरूरी काबिलियत के बावजूद मीडिया में अभी तक सामाजिक स्वरूप के मद्देनजर दलितों का प्रवेश नहीं हुआ है। द्विज कहते फिरते हैं कि किसने दलितों को मीडिया में आने से रोका ? सवाल भी उनका, जवाब भी उनका। द्विजों का मीडिया पर काबिज होने और दलितों का दूर रहने के कारणों के कई पहलूओं को खंगालना होगा। सबसे पहले मीडिया हाउस किसका है उस पर चर्चा करनी होगी। बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं। देश के मीडिया हाउसों को चलाने वाले पूंजीपतियों में द्विजों का ही वर्चस्व है। जाहिर है सवाल के जवाब के लिए ज्यादा माथा पच्ची करने की जरूरत नहीं। दूसरा, मीडिया हाउस को चलाने वाले संपादक-प्रबंधक कौन है ? तो यह मीडिया के राष्ट्रीय सर्वे से साफ हो गया है कि निर्णय वाले पद पर भी वही द्विज काबिज है। अब बात नियुक्ति की, तो मीडिया में होने वाली नियुक्ति सवालों के घेरे में रहा है। दुनिया भर को उपदेश देने वाले मीडिया हाउस में नियुक्ति की कोई विवेकसंगत या पारदर्शी प्रणाली नहीं है। सभी जगह जुगाड़ शब्द चल रहा है। मीडिया के विशेषज्ञ मानते हैं कि मीडिया जगत में दस से पचास हजार रूपये महीने तक की नियुक्तियां इतनी गोपनीयता के साथ की जाती है कि उनके बारे में तभी पता चलता है जब वे हो जाती है। इन नियुक्तियों में ज्यादातर उच्च द्विज ही होते हैं। वजह है कि मीडिया चाहे वह प्रिन्ट (अंग्रेजी-हिन्दी) हो या इलेक्ट्रानिक, फैसले लेने वाले सभी जगहों पर उच्च वर्ण की हिस्सेदारी 71 प्रतिशत है। इनके फैसले पर सवाल उठे या न उठे इस सच को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।वहीं दूसरे पहलू के तहत जातिगत आधार सामने आता है। जहां तक सरकारी मीडिया का सवाल है तो वहां एकाध दलित-पिछड़े नजर आ जाते हैं। देश की कुल जनसंख्या में मात्र आठ प्रतिशत द्विजों की हिस्सेदारी है और मीडिया हाउसों में फैसले लेने वाले 71 प्रतिशत शीर्ष पदों पर उनका कब्जा बना हुआ है। कास्ट कंसीडरेशन की वजह से दलितों को मीडिया में जगह नहीं मिली। जो भी दलित आए, वे आरक्षण के कारण ही सरकारी मीडिया में आये, निजी मीडिया में नहीं। रेडियो-टेलीविजन में दलित दिख जाते हैं दूसरी जगहों पर कहीं नही दिखते। जहां तक मीडिया में दलितों के आने का सवाल है तो उनको आने का मौका ही नहीं दिया जाता है। मामला अवसर का है। दलित डाक्टर, इंजीनियर, डिजाइनर आदि को अवसर मिला तो उन्होंने बेहतर काम किया। बात अवसर का है और दलितों को पत्रकारिता में अवसर नहीं मिलता है। पत्रकारिता में अवसर कठिन हो गया है। मीडिया प्रोफेशन में कोई दलित लड़का पढ़कर, सर्टिफिकेट ले भी लें और वह काबिल हो भी जाय, तकनीक उसको आ भी जाये, तो भी उसकी जाति सबसे बड़ा कारण बन जाता है। पत्रकारिता में दलितों की हिस्सेदारी या फिर उनके प्रति सार्थक सोच को सही दिशा नहीं दी गई। तभी तो हिन्दी पत्रकारिता पर हिन्दू पत्रकारिता का भी आरोप लगता रहा है। हिन्दी पत्रकारिता पूर्वाग्रही और पक्षपाती पत्रकारिता रही है। जात-पात के नाम पर केवल समाज ही नहीं बटा बल्कि समाज को राह दिखाने वाला मीडिया भी बटा है। आरक्षण का सवाल हो या मंडल मुद्दा, मीडिया का जो पक्ष सामने आया, उसमें वह बनता दिखा।मीडिया में दलितों के नहीं होने की सबसे बड़ी वजह देश में व्याप्त जाति व वर्ण व्यवस्था हैं। जो उपर से भले ही नहीं दिखता हो पर अंदर - अंदर इसकी जड़े इतनी गहरी है कि उसे हिला पाना मुश्किल है। हकीकत यह है कि इसे सालों से सत्ता के करीब रहने वाला द्विज नहीं चाहता कि उसकी पकड़ कम हो ? मीडिया में भी व्यवस्था जाति और वर्ण पर आधारित है जो एक पिरामिड की तरह है। जहां ब्राह्मण सबसे उपर और दलित सबसे नीचे है। जो भी दलित मीडिया में आते हैं पहले वे अपना जात छुपाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ज्योंहि उनकी जाति के बारे में पता चलता है। उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार शुरू हो जाता है। वह दलित कितना भी पढ़ा लिखा हो उसकी मेरिट को नजरअंदाज कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में दलित पत्रकार हाशिये पर चला जाता है। जो भी हो समाज में व्याप्त वर्ण/जाति व्यवस्था की जड़े इतनी मजबूत है कि इसे उखाड़ फेंकने के लिए एक मजबूत आंदोलन की जरूरत है, जिसके लिए मीडिया को आगे आना होगा और द्विज को दलितों के लिए जगह खाली करनी होगी और यह जब तक नहीं हो तब तक बराबरी की बात करना बेमानी होगी। मीडिया में दलितों को भीख में भी नहीं चाहिये पहले द्विज जगह तो खाली करें, दलित जगह लेने के लिए तैयार हैं। देश भर में पत्रकारिता संस्थानों से हजारों दलित छात्र पत्रकारिता की पढ़ाई कर पत्रकार बन कर सामने आ रहे है।
राष्ट्रीय मीडिया का सर्वे: 2006 पर एक नजर
राष्ट्रीय मीडिया के प्रमुख पदों को लेकर वर्ष 2006 में मीडिया स्टडीज ग्रुप (दिल्ली) के अनिल चमड़िया (स्वतंत्र पत्रकार), जितेन्द्र कुमार (स्वतंत्र शोधकर्ता) और सामाजिक विकास अध्ययन केन्द्र (सीएसडीएस) के सीनियर फेलो योगेंद्र यादव द्वारा एक सर्वे किया गया था। सर्वे में राष्ट्रीय मीडिया में समाचारों से संबंधित फैसले लेने वाले प्रमुख पदों पर स्थापित पत्रकारों की सामाजिक पृष्ठभूमि इस प्रकार पायी गयी थी।
- हिन्दू उच्च जाति पुरुषों का राष्ट्रीय मीडिया पर वर्चस्व है, भारत की कुल आबादी में इनकी हिस्सेदारी 8 प्रतिशत है, लेकिन मीडिया संस्थानों में फैसला लेने वाले पदों का 71 प्रतिशत उनके हिस्से में आता है।
- राष्ट्रीय मीडिया में 17 प्रतिशत प्रमुख पदों पर महिलाएं हैं, महिलाओं की अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति (32 प्रतिशत) अंग्रेजी इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में है।
हिन्दू मुसलमान ईसाई सिख
भारत की आबादी में हिस्सेदारी 81 13 2 2
प्रिंट हिन्दी 97 2 0 0
प्रिंट अंग्रेजी 90 3 4 0
इलेक्ट्राॅनिक हिन्दी 90 6 1 0
इलेक्ट्राॅनिक अंग्रेजी 85 0 13 2
कुल 90 3 4 1

- विभिन्न जातियों के प्रतिनिधित्व में असामनता है, द्विज हिन्दुओं ( द्विजों में ब्राह्मण, कायस्थ, राजपूत, वैश्य और खत्री को शामिल किया गया था ) की जनसंख्या भारत में 16 प्रतिशत है, लेकिन मीडिया के प्रमुख पदों पर उनकी हिस्सेदारी 86 प्रतिशत है, केवल ब्राह्मण ( इसके अंतर्गत भूमिहार और त्यागी भी शामिल किये गये थे) के हिस्से में 49 प्रतिशत प्रमुख पद हैं।
- दलित और आदिवासी फैसला लेने वाले पदों पर नहीं है, राष्ट्रीय मीडिया के 315 प्रमुख पदों पर एक भी दलित और आदिवासी नहीं है।
- राष्ट्रीय मीडिया के प्रमुख पदों पर अन्य पिछड़े वर्ग की हिस्सेदारी 4 प्रतिशत है, जबकि भारत में इनकी आबादी 43 प्रतिशत है।
- मुसलमान महज तीन प्रतिशत पदों पर हैं, जबकि देश की कुल जनसंख्या में इनका हिस्सा 13.4 प्रतिशत है।
ब्राह्मण कायस्थ वैश्य/जैन राजपूत खत्री गैर द्विज उच्च जाति अन्य पिछड़ी जाति
प्रिंट हिन्दी 59 9 11 8 5 0 8
प्रिंट अंग्रजी 44 18 5 1 17 5 1
इले॰ हिन्दी 49 13 8 14 4 0 4
इले. अंग्रेजी 52 13 2 4 4 4 4
कुल 49 14 7 7 9 2 4
- ईसाईयों का औसत प्रतिनिधित्व है, लेकिन मुख्यतः अंग्रेजी मीडिया में राष्ट्रीय मीडिया में 4 फीसदी पद उनके हिस्से में है, जबकि भारत की आबादी में उनका हिस्सा 2 प्रतिशत है।
- राष्ट्रीय मीडिया में महिलाओं की भागीदारी 17 प्रतिशत है, अंग्रेजी मीडिया में अपेक्षाकृत महिलाओं की भागीदारी ठीक है, जबकि अंग्रेजी इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में इनकी भागीदारी संतोषजनक है। इनमें भी दलित महिला पत्रकार नहीं है।
Written by (संजय कुमार) 

अमेरिका को लगा आर्थिक ग्रहण

बीती कई रातों से अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की नींद हराम करने वाला कर्ज संकट थोड़े समय के लिए टल गया है। आखिरी पलों में डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन सांसदों के बीच हुए समझौते के बाद सरकारी कर्ज की सीमा बढ़ाने संबंधी विधेयक को मंजूरी मिल गई। अगर सीनेट में कर्ज सीमा बढ़ाने के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया जाता तो अमेरिका कर्ज का जरूरी भुगतान नहीं कर पाता। ऐसे में दुनिया की आर्थिक महाशक्ति की साख खराब होने से समूची दुनिया के बाजारों के डूबने का खतरा पैदा हो गया था। सवाल उठता है कि आखिर दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था अमेरिका के सामने यह नौबत कैसे आई।अमेरिका में 1960 के बाद से ही कर्ज की अधिकतम सीमा में 78 बार इजाफा किया गया और फिलहाल 14.3 खरब डॉलर है। जब बेहतर दिन थे, तो रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक दोनों दलों ने कर्ज सीमा में बढ़ोत्तरी की थी। मगर अब अमेरिकी अर्थव्यवस्था बुरी तरह संकट में फंसी हुई है, लिहाजा दोनों दलों के बीच अपने-अपने वोटरों के हितों के लिए तलवारें खींच गई हैं।रिपब्लिकन पार्टी और डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच कर्ज की सीमा बढ़ाने को हुए दंगल का जवाब अमेरिकी समाज के ताने-बाने में छुपा है। अमेरिका में रह रहे अप्रवासी, अश्वेत और निचले दर्जे के श्वेत नागरिक आमतौर पर डेमोक्रेटिक रुझान वाले माने जाते हैं जबकि मध्यवर्ग और पूंजीपति रिपब्लिकन पार्टी को समर्थन देते हैं। अमेरिका का मध्यवर्ग 1960 के दशक में वहां की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उभार के साथ अपने चरम पर था। 1972 में तेल की कीमतों में हुई बेहताशा बढोतरी ने अमेरिका समेत पश्चिमी देशों के मैन्युफेक्चरिंग सेक्टर की कमर तोड़ कर रख दी। अमेरिका मध्यवर्ग ने नौकरी पाने के लिए सर्विस सेक्टर का रूख किया मगर यहां वेतन कम था। सर्विस सेक्टर की ओर हुए ट्रांसफर को इस बात से समझा जा सकता है कि अमेरिका में 40 साल से औसत वेतन में इजाफा नहीं हुआ है।बीते दो दशकों से सर्विस सेक्टर पर भी भारत, वियतनाम और चीन जैसे एशियाई देश छा गए हैं वहीं दूसरी ओर अमेरिकी मध्यवर्ग वित्त, कानून और एकाउंटिंग जैसे ऊंचे वेतन वाले सेक्टरों में नौकरियां खोता गया। विडंबना देखिए, अमेरिकी मध्यवर्ग ने संभलने की बजाए कर्ज लेकर जीने के अपने खर्चीले अंदाज को कायम रखा। 2008 के आखिर में कर्जों का बुलबुला फूट गया और मध्यवर्ग के हाथ में वित्तीय संस्थाओं के बिना चुकाए गए बिल बचे रह गए। 2008 में अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव में दोनो पार्टियों ने अपनी-अपनी आर्थिक नीतियों के मुताबिक ही जनता से वादे किए। रिपब्लिकन पार्टी ने कहा कि करों में कोई वृद्धि नहीं होने दी जाएगी और सरकार के सार्वजनिक खर्च में कटौती के जरिए कर्ज संकट का समाधान किया जाएगा। अमेरिका की बढ़ती बूढ़ी आबादी भी ओबामा प्रशासन के गले की हड्डी बन गई है। बूढ़ी आबादी की अधिकता के कारण पेंशन और स्वास्थ्य क्षेत्र में सरकार का बिल बढ़ गया है वहीं युवा आबादी की कमी के कारण उद्योगों की श्रम लागत बढ़ गई है। ओबामा ने चुनाव में यूनिवर्सल हेल्थकेयर और बेहतर पेंशन का वादा किया था, इस कारण डेमोक्रेटिक पार्टी सार्वजनिक खर्चों में कमी नहीं कर सकती हैं। वहीं सरकारी कर्ज की अधिकतम सीमा बढ़ाने से पहले रिपब्लिकन पार्टी ओबामा प्रशासन से सार्वजनिक खर्चों में कटौती करने का वादा लेना चाहती थी। यही समस्या सारे विवाद की जड़ है और पिछले तीन महीने से दोनों पार्टियों के बीच विवाद था। दो अगस्त को दोनों पार्टियों के बीच समझौता हो गया है लेकिन इसमें बराक और अमेरिकी के गरीब तबके के लिए खुश होने की कोई वजह नहीं है। समझौते के तहत राष्ट्रीय ऋण सीमा में 2,100 अरब डॉलर की बढ़ोतरी होगी लेकिन सरकार को अपने खर्चों में 2,400 अरब डॉलर की कटौती करनी होगी। वैसे तो अमेरिका के मौजूदा संकट की जड़ें उसकी आर्थिक और विदेश नीतियों में छिपी हैं मगर इसका तात्कालिक दोषी अमेरिका को हालिया दो युद्धों में धकेलने वाले रिपब्लिकन हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था की चूलें हिल चुकी थी लेकिन रोनाल्ड रीगन से लेकर जार्ज डब्ल्यू बुश तक रिपब्लिकन पार्टी के ही नुमाइंदों ने जनता का पैसा दुनियाभर की लड़ाइयों में झोंक दिया। फौरी तौर पर कर्ज संकट भले ही टल गया हो लेकिन सरकारी खर्चों पर मोलतोल और ब्रिंकमैनशिप (संकट को तबाही के कगार से थोड़ा आगे खींचना) ने पूरी दुनिया के सामने अमेरिका की पोल खोल दी है। (साभार -दैनिक भास्कर )






Wednesday, June 22, 2011

खूबसूरत वादियों में बसा जेएनयू

हिन्दुस्तान की इस सरजमी पर अनेक विश्वविद्यालय नजर आते है, लेकिन
'जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय(जेएनयू) का अपना अलग ही अंदाज है।
जे.एन.यू, नई दिल्ली के दक्षिण भाग में स्थित है, जहा विभिन्न विषयों में
उच्चस्तर की शिक्षा प्रदान की जाती है, इसे मानविकी, समाजविज्ञान और
अंतर्राष्टीय अध्ययन हेतु हिन्दुस्तान का सर्वोपरि विश्वविद्यालय माना
जाता है| यह एक ऐसा प्लेटफोर्म है जहा से हर कोई अपनी किस्मत का सितारा
बुलंद कर सकता है, यह एक मिशाल है देश के उन नवयुवको के लिए जो अपनी
जिन्दगी में कुछ नया कर दिखाने का जज्बा  रखते है| यहाँ के विद्यार्थी
पढने लिखने के अलावा अपनी राजनीतिक चेतनशीलता के लिए जाने जाते है| अगर
हम बात करें यहां के माहौल की,पढ़ाई की, रहन-सहन की, खाने-पीने की और
यहां के कार्यक्रमों की, तो हर मायने में यह एक अलग अंदाज रखते हैं। यहां
का शांत लेकिन सब कुछ कह देने वाला वातावरण, उच्चस्तर की शिक्षा ओर
छात्र-छात्राओ की राजनीति में सक्रिय भागीदारी, छात्रों को उच्च स्तरीय
शिक्षा में यहां प्रवेश लेने के लिए आकर्षित करती है। हर किसी के मन में
यह सवाल स्वाभाविक ही उठता है कि कैसे भी करके इस विश्वविद्यालय में
दाखिला ले लूं| जे.एन.यू एक मीठे शहद की तरह है ,जिसे चखने के लिए हर कोई
बैचेन रहता है और जिसने एक बार चख लिया, वह बार-बार दोड़ा चला आता है
चाहे वह देश दुनिया के किसी भी कोने में क्यों ना हो| यह दिल्ली में सबसे
हटकर व सुरक्षा के मामले में चाकचौबंद यह विश्वविद्यालय अपनी एक अलग
पहचान लिए हुए कई विशेषताओं पर खरा उतरता है। यहाँ की पार्थसारथी
चट्टाने, चहचहाते पक्षियों का मधुर सा कोलाहल, प्राकृतिक गुफाएं,
रंगबिरंगे फूल, गहरे जंगल,शांत वातावरण,नेहरुजी, की मूर्ति,लम्बी-चौड़ी
लाइब्रेरी ये सब मिलकर जेएनयू के वातावरण को एक अनुपम स्वरूप प्रदान करते
हैं। जे.एन.यू जैसा खुला माहोल देश के किसी अन्य विश्वविद्यालय में देखने
को नहीं मिलेगा, यही वजह की यहाँ का खुला माहोल हर किसी को रास आ जाता
है, यहाँ की हास्टल लाइफ का भी एक अलग सा मजा देखने को मिलेगा लाजवाब
खाना,सम्पूर्ण  सुविधाओं से लबालब| यहाँ के हास्टलो के नाम नदियों पर रखे
गये है, जो एक सेकुलर नाम है, जो किसी धर्म या जात-पात की बात नहीं करते
बल्कि इंसानियत की बात करते है जिनमेकावेरी,गोदावरी,पेरियार,झेलम,सतलुज,गंगा,
साबरमती,ब्रम्हपुत्रा,महानदी,यमुना,ताप्ति,माहि-मांडवी,लोहित,चंद्रभागा
,कोयना और लूनी हास्टल आते है, अगर यहाँ की पोलिटिक्स की बात की जाए तो
इसका भी कोई जवाब नहीं लाजवाब है, केम्पस में कई पार्टिया सक्रीय है,
पार्टियों के बने  बेनर या पोस्टर आपको हर  किसी सेंटर के आगे देखने को
मिलेगा, इन पार्टियों में आइसा पार्टी अन्य पार्टियों पर भारी पड़ती है|
ये यहाँ की पोलिटिक्स का ही नतीजा है की यहाँ के छात्र-छात्राए देश के हर
तमाम मुद्दो पर अपनी तेज-तर्रार पकड रखते है,और देश की पोलिटिक्स में भी
इनका वर्चस्व कायम है और रही बात यहाँ की शाम की तो वो दिनभर की किताबी
पढ़ाई से अलग अधिक मनोरंजक व ज्ञानवर्धक होती हैं।शाम होते ही जेएनयू के
प्रसिद्द गंगा ढाबा, पार्थसारथी रॉक, गोदावरी ढाबा, गोपालन जी की
लाईब्रेरी कैंटीन, मामू का ढाबा, २४&७ ढाबा जैसी जगहों पर छात्रों की
भीड़ देखते ही बनती है। कहीं सिगरेट के कश छोड़ते बुद्धिजीवी तो कही
हंसते खिलखिलाते दोस्तों के ग्रुप,तो कही प्रेम में तल्लीन प्रेमी जोड़ेतो
कही देश दुनिया के मुद्दों को वैचारिक बहसों में खपाते युवा जेएनयू की
शाम का हाल बयान कर डालते हैं। जनवरी की सर्दी में गंगा ढाबा के पास खड़ी
आइसक्रीम की रेहड़ी पर छात्राओं की भीड़ और उनके मुख पर मंद-मंद मुस्कान
से जेएनयू की आनंदमयी शाम का चित्र स्वंय प्रस्तुत हो आता है। जेएनयू के
झेलम छात्रावास के बाहर दोस्तों के साथ मुंबई हमले पर विवाद करते हुए एमए
समाजशास्त्र के छात्र बूटासिंह के चेहरे का लाल रंग और आंखो में झलक रहा
गुस्सा, आतंकवादियों के खिलाफ उनकी प्रतिक्रिया को व्यक्त करने के लिए
काफी है। ये वाद विवाद, मौजमस्ती, उन्मुक्त माहौल में उमड़ते-घुमड़ते
विचार वहां की रोजाना की शामों का एक अभिन्न अंग हैं। जेएनयू के मुख्य
द्वार से लेकर ब्रह्मपुत्र हॉस्टल तक हर जगह तैनात सुरक्षाकर्मी, सड़कों
को प्रकाशमय करती स्ट्रीट लाइट इत्यादि जेएनयू की एक सक्रिय सुरक्षा
व्यवस्था का प्रमाण हैं। हॉस्टल में ठीक आठ बजे खाना खाने के बाद ठहलने
निकल जाना छात्रों की आदत बन चुकी है। वास्तव में जेएनयू की शाम, उसकी
सुबह के मुकाबले कहीं अधिक मनोरंजक और उल्लास लिए होती है। लेकिन इस शाम
का जितना आनंद इसके बारे में पढऩे में है, उससे कहीं ज्यादा उल्लास तो
यहां एक शाम गुजारने में आता है।

Wednesday, May 11, 2011

माया का फैलता मायावी जाल. .. अब किसानो पर

ग्रेटर नोएडा के नजदीक भट्टा-पारसौल गांव में किसानों और प्रशासन के बीच हुए खूनी संघर्ष ने एक बार फिर भूमि-अधिग्रहण की नीति पर सवालिया निशान खड़ा किया है। किसानों को मुआवजे के बदले मौत देने की यह रवायत नई नहीं है। कुछ समय पहले अलीगढ़ और मथुरा में भी ऐसी ही झड़पें हुई थीं। पुराने हादसों से सबक लेना तो दूर, सरकार ने किसानों की मांगों पर गौर फरमाना भी जरूरी नहीं समझा। किसान 17 जनवरी से यमुना एक्सप्रेस-वे के विरोध में धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। किसानों की मौत के बाद सारे राजनीतिक दल घड़ियाली आंसू बहाते हुए किसान हितैषी होने का दावा करते हैं, लेकिन जमीन अधिग्रहण की सुस्पष्ट योजना किसी के पास नहीं है। यमुना एक्सप्रेस-वे और गंगा एक्सप्रेस-वे मायावती सरकार की महत्वाकांक्षी योजनाएं हैं।ऐसा लगता है कि मायावती सरकार ने बिल्डरों, रीयल इस्टेट कंपनियों और देशी-विदेशी बड़ी कंपनियों के हक में उत्तर प्रदेश में किसानों के खिलाफ एक तरह से युद्ध सा छेड दिया है. सीधे-सीधे सरकार की अगुवाई में बड़े पैमाने पर किसानों की जमीन लूटी जा रही है. कहीं यमुना एक्सप्रेस-वे के नाम से और कहीं गंगा एक्सप्रेस-वे के नाम पर. यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि जिस गंगा-यमुना के किनारे एक पूरी सभ्यता-संस्कृति विकसित हुई और उसके उपजाऊ मैदानों में किसानों ने कड़ी मेहनत से लाखों-करोड़ों का पेट भरा, उन्हीं किसानों और उनके साथ इस पूरी सभ्यता को उजाड़ने का अभियान चल रहा है. यमुना एक्सप्रेस-वे के तहत नोएडा से आगरा के बीच 165 किलोमीटर लंबी आठ लेन की सड़क बनाई जा रही है। इस योजना के लिए गौतमबुद्ध नगर, बुलंदशहर, अलीगढ़, महामाया नगर, मथुरा और आगरा जिलों के करीब 335 गांवों में तकरीबन 1,500 हेक्टेयर जमीन अधिगृहीत की जा चुकी है। यमुना एक्सप्रेस-वे पर सड़क के दोनों ओर होटल, शॉपिंग मॉल, पेट्रोल पंप और औद्योगिक गलियारा बनाने की बात कही जा रही है। दिक्कत यहीं से शुरू होती है। जरूरत से ज्यादा जमीन का अधिग्रहण किया जाता है और सड़क बनने से पहले होटल व रिहायशी कॉलोनियां खड़ी कर दी जाती हैं। सवाल उठता है कि उद्योगों के लिए जमीन खरीदते समय सरकारें उनके एजेंट की तरह व्यवहार क्यों करती हैं। होना तो यह चाहिए कि उद्योग सीधे किसान से बाजार भाव पर जमीन खरीदे, मगर सवा सौ साल पुराने अंगरेजी कानून के सहारे जनहित की आड़ में औने-पौने दाम में किसानों की जमीन अधिगृहीत की जाती है। किसान अगर अपनी जमीन का बाजार भाव मांग रहे हैं और प्रस्तावित इलाकों में विकसित होने वाली सुविधाओं में प्राथमिकता दिए जाने की मांग कर रहे हैं, तो इसमें गलत क्या है?विडंबना देखिए, यमुना एक्सप्रेस-वे से विस्थापित होने वाले 50 हजार से ज्यादा किसानों के भविष्य का कोई खाका सरकार या संबंधित कंपनी के पास नहीं है, लेकिन विकास के दावे लगातार किए जा रहे हैं।यमुना-दोआब के जिस इलाके में चमचमाती सड़कें बिछाने की योजना बनाई गई है, वह बेहद उपजाऊ इलाका है। गन्ना, गेहूं, आलू और दालों की पैदावार के लिए मशहूर इस इलाके को औद्योगिक कॉरिडोर में तबदील करने की बड़ी कीमत खाद्य संकट के रूप में चुकानी पड़ सकती है। तकनीकी और प्रबंधकीय शिक्षा से विहीन किसानों को इन प्रस्तावित कारखानों में नौकरी मिल पाएगी, यह बताने की जरूरत नहीं है। आखिर बुंदेलखंड और तराई इलाकों में औद्योगिक इकाइयां क्यों नहीं लगाई जाती हैं या अनुपयोगी जगह का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता है? मिसाल के तौर पर रायबरेली, गोरखपुर और जौनपुर में पहले से स्वीकृत औद्योगिक परिसर वीरान पड़े हैं। आलम यह है कि सरकार को दिल्ली के नजदीक नोएडा से आगे कुछ दिखाई ही नहीं देता। कौड़ियों के भाव जमीन लेकर उस पर बड़ी कंपनियों के रीएल्टी प्रोजेक्ट खड़े करने के गोरखधंधे में नेता, अफसर और उद्योगपति, सभी शामिल हैं।कई राज्यों में किसानों और प्रशासन के बीच संघर्ष के बाद केंद्र सरकार ने जमीन अधिग्रहण कानून में बदलाव का वायदा किया था, लेकिन अब तक उस दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई है। टप्पल और ग्रेटर नोएडा की घटनाएं सरकार के लिए भावी संकट की आकाशवाणी हैं और अगर समय रहते इस दोषपूर्ण नीति को नहीं बदला गया, तो किसान और हाशिये पर चले जाएंगे।पिछले हफ्ते आई एशियाई विकास बैंक की रपट देश में खाद्य संकट की ओर इशारा कर रही है, वहीं सरकारें कृषि भूमि पर पूंजीपतियों के लिए आवासीय कॉलोनियां बनाने की होड़ में लगी हैं। बेहतर होगा कि सरकार उद्योग जगत का पक्षकार बनने के बजाय किसानों और उद्योगपतियों को सीधे संवाद का अवसर मुहैया करवाए। बेशक किसानों के पास पूंजीपतियों की माफिक नेताओं के लिए पैसों की पोटली नहीं है, लेकिन चुनावी मौसम में उनकी नाराजगी किसी भी सरकार की जड़ें हिला सकती है।

Thursday, February 24, 2011

वो खडा सीमाओं पे ..

वो खडा सीमाओं पे |
 
मौन हैं खड़े ये पर्वतों के शिखर,
                                    मौन हैं वादियों के झरने |
वो खड़ा सीमाओं पे सहता,
                          मौन वर्फीली वादियों के झरने ||
 
पूजता थाल वो देश की मिट्टी का चन्दन लगा,
झुकता उनका शीश देश की सरहद का वन्दन लगा,
बहाता आंसुओं को मोती बना वतन के नाम पर,
देश की सरहद घर बना सजाता पेड़ चन्दन लगा,
झर उठते एहसास उनके देश  पे,
                                        मौन हो वादियों के झरने ||
                                        वो खड़ा सीमाओं पे -------
  
कतरा- कतरा खून अपना निछाबर करता देश के नाम,
खुशियाँ बेच सीमा पर करता दुश्मनों के काम- तमाम,
जीने की उम्र कोई होती नहीं ममता भी  ये रोती नहीं,
लिखता वह खत अमर हो जाऊं बस तेरे देश के नाम,
 लड़-खडा,  थर-थराएँ न होठ वर्फ में,
                                                मौन हो वादियों के झरने ||
                                                वो खड़ा सीमाओं पे -------
 
पोंछता छलके आंसू माँ के विदाई ले जब घर से  चला,
बहन भी खड़ी रो बांधती -कलाई राखी ले घर से चला,
सिसकती देहरी- दूर खड़ी सुहाग-सिन्दूर न बिछुड़े मेरा,
बिटिया का प्यार गोद ले उठा- रोया जब घर से चला,
मेरा घर- मेरा वतन, वो प्यार ले सोचता,
                                                 मौन ये वादियों के झरने ||
                                                 वो खड़ा सीमाओं पे -------
 
सोचूँ लौट चलूँ माँ की जन्म- भूमि मन जीवन की  धारा,
छोड़ा जब से आंगन विचलित है मन बहती निर्मल धारा,
अश्रु  बहाते छोड़ा जिनको उनकी  स्मृतियाँ जिनसे दूर हुआ, 
रंगी हुई दीवारें जिनमें खेली होली  बिटिया का रंग सारा,
माँ में मात्र - भूमि का आंचल पा सोचूँ,
                                                   मौन इन वादियों के झरने || 
                                                   वो खड़ा सीमाओं पे -------
                             --------------------
                                    
                                               
                                            

कविता (मैं तूफानों में चलने का आदी हूं..)

मैं तूफानों में चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

हैं फूल रोकते, कांटे मुझे चलाते..
मरुस्थल, पहाड चलने की चाह बढाते..
सच कहता हूं जब मुश्किलें ना होती हैं..
मेरे पग तब चलने मैं भी शर्माते..
मेरे संग चलने लगे हवाएं जिससे..
तुम पथ के कण कण को तूफान करो..

मैं तूफानों में चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

फूलों से जग आसान नहीं होता है..
रुकने से पग गतिवान नहीं होता है..
अवरोध नहीं तो संभव नहीं तो संभव नहीं प्रगति भी..
है नाश जहां निर्मम वहीं होता है..
मैं बसा सुकून नव-स्वर्ग ’धरा’ पर जिससे..
तुम मेरी हर बस्ती वीरान करो..

मैं तूफानों में चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो.

मैं पंथी तूफानो में राह बनाता..
मेरा दुनिया से केवल इतना नाता..
वह मुझे रोकती है अवरोध बिछाकर..
मैं ठोकर उसे लगाकर बढता जाता..
मैं ठुकरा सकूं तुम्हें भी हंसकर जिससे..
तुम मेरा मन-मानस पाषाण करो..

मैं तूफानों में चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो||

Friday, January 28, 2011

'भटकन'

भटक रहा हू
इधर से उधर,
कुछ पाने की तलाश में,
परन्तु,
वह 'कुछ'
क्या है?
नहीं जान सका हू|
और जानना भी नहीं चाहता
शायद ?
क्योकि
इस भटकन में ही
आनन्द मिलने लगा है
मुझको|
फिर जानकर  करुगा भी क्या?
जिन्होंने जान लिया है
वो क्या पार हो गये
इससे |
फिर भटकने लगे, वो
किसी दूसरे 'कुछ' की
तलाश में|
शायद नियति भी यही है|
इसलिए चाहता हू कि
भटकता ही रहू
यहाँ से वहा
इधर से उधर
किसी 'एक' की तलाश में,
कम से कम
समर्पण तो बना रहेगा,
मेरा
स्थिर|
अगर जान लिया,मेने
उस 'कुछ' को,
तो फिर भटक जाउगा
किसी अगले 'कुछ' की तलाश में
और
शायद
जीवन -भर तृप्त नहीं हो पाउगा | 

कौन हू मै..?

हर तरफ अन्धेरा है,
कही में अंधा तो नहीं?
करता हू तेरी पूजा,
कही में रब का बन्दा तो नहीं ?
 फिरता हू तेरी तलाश में,
कही में मुसाफिर तो नहीं?
रब से मागता हू तेरी ही भीख,
कही में फकीर तो नहीं?
हर चेहरे पर तेरा ही चेहरा दिखे,
कही में दीवाना तो नहीं?
बस तलाश है तेरे प्यार की, शमा की .
कही मै परवाना तो नहीं?
करता हू फूलो से तेरी बाते,
कही में भवरा तो नहीं?
भटकता हू तेरी याद में,
कही में आवारा तो नहीं?
हर बात से डरता हू
कही मै कायर तो नहीं?
बिना सोचे ही चलती है कलम,
कही मै सायर तो नहीं?

जिन्दगी

गुजरे हुए वक्त को भुलाया नहीं जाता,
रोशनी के लिए घर जलाया नहीं जाता|
जिन्दगी का दूसरा नाम धुप-छाव सही,
देखकर मगर जहर तो खाया नहीं जाता|
शीशे के महल में रहने वाले तुम सही,
काच से पत्थरों को डराया नहीं जाता|
पके हुए फल पर परिंदे का भी हक है
यू ही उसे गुलाल से उड़ाया नहीं जाता|
हिम्मत से जो डट जाता मैदाने जग में,
आंधी  से वह चिराग बुझाया नहीं जाता|


Saturday, January 22, 2011

अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो

अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो जान थोड़ी है
ये सब धुआँ है कोई आसमान थोड़ी है
लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में
यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है
मैं जानता हूँ के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन
हमारी तरहा हथेली पे जान थोड़ी है
हमारे मुँह से जो निकले वही सदाक़त है
हमारे मुँह में तुम्हारी ज़ुबान थोड़ी है
जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है
सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है

जो बीत गई

जो बीत गई सो बात गई !
जीवन में एक सितारा था,
माना, वह बेहद प्यारा था,
वह डूब गया तो डूब गया;
अंबर के आनन को देखो,
कितने इसके तारे टूटे,
कितने इसके प्यारे छूटे,
जो छूट गए फिर कहाँ मिले;
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है !
जो बीत गई सो बात गई !

जीवन में वह था एक कुसुम,
थे उस पर नित्य निछावर तुम,
वह सूख गया तो सूख गया;
मधुवन की छाती को देखो,
सूखीं कितनी इसकी कलियाँ,
मुरझाईं कितनी वल्लरियाँ
जो मुरझाईं फिर कहाँ खिलीं;
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है;
जो बीत गई सो बात गई !

जीवन में मधु का प्याला था,
तुमने तन-मन दे डाला था,
वह टूट गया तो टूट गया;
मदिरालय का आँगन देखो,
कितने प्याले हिल जाते हैं,
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं,
जो गिरते हैं कब उठते हैं;
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है !
जो बीत गई सो बात गई !

मृदु मिट्टी के हैं बने हुए,
मधुघट फूटा ही करते हैं,
लघु जीवन लेकर आए हैं,
प्याले टूटा ही करते हैं,
फिर भी मदिरालय के अंदर
मधु के घट हैं, मधुप्याले हैं,
जो मादकता के मारे हैं,
वे मधु लूटा ही करते हैं;
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट-प्यालों पर,
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है, चिल्लाता है !
जो बीत गई सो बात गई !

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज ह्रदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी ना मानी हार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।

हिंदी पर राजनीति कितनी जायज

यह देश का दुर्भाग्य ही है कि हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए जब भी केंद्र सरकार कोई योजना बनाती है अथवा कोई अन्य पहल करती है तो उसे राजनीतिक दांव-पेंच में उलझा दिया जाता है। पिछले दिनों विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा सत्र 2011-12 से देश के सभी 43 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले विदेशी छात्रों के लिए हिंदी के पठन-पाठन की व्यवस्था अनिवार्य कर दी गई है। इसके तहत अगले तीन साल में विदेशी छात्रों के लिए एक अनिवार्य विषय के रूप में हिंदी पढ़ाई जाएगाी। यूजीसी द्वारा देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में विदेशी छात्रों के लिए स्नातक व परास्नातक पाठ्यक्रमों में हिंदी पढ़ना अनिवार्य बनाने की बात कही गई है। केंद्रीय राजभाषा क्रियान्वयन समिति ने इस प्रस्ताव का प्रारूप तैयार किया है। हालांकि हिंदी प्रेमियों के लिए यह गर्व की बात होनी चाहिए,। लेकिन ठीक इसके उलट गत दिनों केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में जवाहर नवोदय विद्यालय खोलने की मंशा दविण मुनेत्र कडगम यानी डीएमके प्रमुख एम.करुणानिधि के पुत्र और राज्य के वर्तमान उप मुख्यमंत्री स्टालिन से जाहिर की। इस बारे में स्टालिन ने मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को साफ मना कर दिया कि तमिलनाडु राज्य में नवोदय विद्यालय नहींखोले जाएंगो, क्योंकि इसके जरिए दक्षिण के राज्यों में हिंदी भाषा का प्रचार व प्रसार किए जाने का कार्य किया जाएगा, जो उन्हें कतई स्वीकार नहीं हो सकता है। उनके मुताबिक केंद्र सरकार अंग्रेजी और तमिल माध्यमों में विद्यालय खोलना चाहे तो इसके लिए उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। इस समय देश भर में 593 नवोदय विद्यालय हैं जिसमें तमिलनाडु ही भारत का एकमात्र प्रदेश है जहां एक भी नवोदय विद्यालय नहीं है। इसकी वजह है हिंदी, जबकि इस विद्यालय की शिक्षण प्रणाली त्रिभाषा फार्मूले पर आधारित है। इसके मुताबिक जो प्रदेश गैर हिंदी भाषी हैं, वहां स्थानीय भाषा में पढ़ाई की व्यवस्था की जानी है। हिंदी की अनिवार्यता पाठ्यक्रम में केवल इसलिए किया गया है ताकि अहिंदी भाषी छात्र भी इससे परिचित हो सकें। यहां सवाल यह है कि सरकार जिन नवोदय विद्यालयों को अखिल भारतीय शिक्षा योजना कह रही है, क्या हकीकत में उसे पूर्ण कहा जा सकता है? यह एक बड़ी विडंबना ही है कि संविधान में हिंदी के लिए काफी प्रावधान किए गए हैं, फिर भी ऐसा लगता है कि उसके क्रियान्वयन में ईमानदारी नहीं बरती गई है।। संविधान के इस प्रावधान का जितना उल्लंघन और निरादर हुआ है शायद ही किसी और का हुआ हो। दरअसल सरकार और हर पार्टी को वोट चाहिए और जब ये लोग वोट के नजरिए से देखते हैं तो प्रचार करते हैं कि अमुक प्रदेश के लोग हिंदी नहींचाहते। दरअसल यहां पूरा मामला वोट की राजनीति का ही है। वह भली प्रकार समझते हैं कि यदि हिंदी लागू किया गया तो उन्हें वोट नहींमिलेंगे। इस तरह एक तो वोट की राजनीति और ऊंचे जगहों पर बैठे राजनीतिक नेता अपना दबदबा बरकरार रखना चाहते हैं। यहां यह बात उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारतीय नेता और संविधान सभा के सदस्य रामास्वामी आयंगर ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की पुरजोर वकालत की थी। हिंदी को लेकर जिस तरह का बवाल डीएमके और एआईडीएमके द्वारा मचाया जाता है असल में वह राजनीति से प्रेरित है, क्योंकि हिंदी विरोध का स्वर वहां की जनता से ज्यादा नेताओं में दिखता है। वहीं तमिलनाडु के छात्र जब दिल्ली सहित दूसरे बड़े शहरों में शिक्षा या रोजगाार के लिए जाते हैं तो वे बखूबी हिंदी बोलते देखे जा सकते हैं। नई दिल्ली स्थित जेएनयू परिसर में भारत के प्रतिष्ठित पत्रकारिता संस्थान में जिस वक्त मैं पढ़ता था वहां कई दक्षिण भारतीय मेरे मित्र थे। जिनसे मैं हिंदी में बात करता था और वह भी मुझसे हिंदी में बात करते थे। उनकी जुबान से कभी भी मैने हिंदी विरोध की बातें नहीं सुनी। गौरतलब है कि कोठारी शिक्षा आयोग ने 1964-66 की अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि भारत में सौहार्द और सामाजिक सामंजस्य स्थापित करने के लिए जरूरी है कि सभी बच्चों के लिए समान गुणवत्ता वाली स्कूल प्रणाली स्थापित की जाए। भारत की पहली शिक्षा नीति 1968 में, दूसरी 1986 और तीसरी 1992 में पेश हुई। तीनों ही शिक्षा नीतियों ने आयोग की सिफारिशों को स्वीकार किया। हिंदी का विरोध सबसे पहले दक्षिण भारत में शुरू हुआ। वास्तव में यह विरोध 1937 में उस समय शुरू हुआ जब उस वक्त के मद्रास में हिंदी की शिक्षा को अनिवार्य किया गया। इस विरोध आंदोलन का नेतृत्व जस्टिस पार्टी ने किया था। परिणामस्वरूप 1940 में ब्रिटिश सरकार ने यह प्रस्ताव वापस ले लिया और हिंदी की अनिवार्यता खत्म कर दी गई। आजादी के बाद भी गैर हिंदी राज्यों मे हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने को लेकर मतभेद था और वे अंगे्रजी में ही सरकारी कामकाज को जारी रखना चाहते थे। इसके बाद 1965 में जब संविधान लागू हुए 15 वर्ष हो गए तो हिंदी को एकमात्र आधिकारिक भाषा होना था, लेकिन ठीक उसी दिन 26 जनवरी, 1965 को हिंदी विरोध आंदोलन की गति और तेज हो गई। मदुरै में दंगा-फसाद शुरू हो गया और काफी जानें गई। लिहाजा तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने आश्वासन दिया की गैर हिंदी राज्य जब तक चाहें हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को भी इस्तेमाल कर सकते हैं। 1986 में जब राजीव गांधी ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अंतर्गात नवोदय विद्यालय योजना लागू की तो एक बार फिर तमिलनाडु मे डीएमके ने यह कहकर इसका विरोध किया कि इससे हिंदी शिक्षा अनिवार्य हो जाएगाी। 13 नवंबर, 1986 को विधानसभा में एक प्रस्ताव पास किया गया जिसमें अंग्रेजी को संघ का आधिकारिक भाषा बनाने की मांग की गाई। 17 नवंबर, 1986 को डीएमके की अगुवाई में इस आंदोलन ने जोर पकड़ा। आखिरकार राजीव गांधी को संसद में आश्वासन देना पड़ा कि तमिलनाडु में हिंदी थोपी नहीं जाएगी। दक्षिण भारत के अलावा वर्तमान महाराष्ट्र में हिंदी का एक पार्टी के द्वारा विरोध जगा है। यह सही है कि हर एक को अपनी भाषा से लगााव होता है और यह उस राज्य की वहां के रहने वालों की एक पहचान होती है, लेकिन हमारी पहली पहचान हमारी भारतीयता है। पहले हम हिंदुस्तानी हैं, हिंदी हैं फिर कोई और। यदि किसी भाषा का विरोध करना ही है तो हमें अंग्रेजी का करना चाहिए न की हिंदी का। एक तरफ सरकार हिंदी को बढ़ावा देने के मकसद से दूसरे देशों के छात्रों को हिंदी पढ़ाना चाहती है वहीं दूसरी तरफ तमिलनाडु जैसे राज्य में नवोदय विद्यालय न खुल पाना एक विरोधाभास और हास्यास्पद घटना है। अगर सरकार वाकई हिंदी के लिए कुछ करना चाहती है तो वह किश्तों में प्रयास करना बंद करे और एक ठोस निर्णय लेते हुए नवोदय विद्यालय को संपूर्ण भारत की शिक्षा में शामिल करने की बाधाएं दूर करनी चाहिए। साभार