Wednesday, August 10, 2011

डॉ.अम्बेडकर और सामाजिक क्रान्ति

यह सर्वविदित है कि बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर का जन्म भारत की सामाजिक, वर्ण-व्यवस्था के अनुसार अतिशूद्र, अन्त्यज मानी जाने वाली महार जाति में हुआ था। इस ब्राह्मणी व्यवस्था के अनुसार �अछूत� मानी जाने वाली इन जातियों के लोगों को छूने से भी �पाप� लगता था। इस व्यवस्था के अनुसार तथाकथित उच्चवर्णीय लोग इन जातियों के लोगों की छाया से भी दूर रहते थे। इसी कारण इनका मार्ग पर चलने का भी समय दिन के बारह-एक बजे निर्धारित था। चूँकि उस समय सूर्य की धूप सिर पर रहती है और लोगों की लम्बी परछाई नहीं पड सकती, इसलिए इनकी छाया उन पाखण्डी लोगों तक नहीं पहुँच पाती थी।
इन लोगों के ब्राह्मणी धर्म में व्यक्ति की योग्यता का कोई महत्त्व नहीं होता। महत्त्व होता है जाति का। जो जन्म से ही निर्धारित हो जाती है। व्यक्ति के पैदा होते ही उसकी जाति के अनुसार उसकी सामाजिक स्थिति का निर्धारण हो जाता है। जाति ही उसकी योग्यता का मापदण्ड होती है। इसी कारण डॉ.बाबा साहब जैसे महान् विद्वान्, विश्वविभूति को जाति के अभिशाप के कारण इस हिन्दू धर्म अर्थात् ब्राह्मणी धर्म में कितना अपमान सहना पडा, यह किसी से छिपा नहीं है।
डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर इस धर्म की क्रूरता और अपमान से इतने आहत हुए कि उन्हें १३ अक्टूबर, १९३५ को येवला जिले में सार्वजनिक रूप से यह घोषणा करनी पडी कि ��मैंने हिन्दू धर्म में जन्म अवश्य लिया है। यह मेरे वश में नहीं था किन्तु अब मैं हिन्दू धर्म में मरूँगा नहीं। यह मेरे वश में है।��
डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर जैसे व्यक्ति को हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म क्यों ग्रहण करना पडा*? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका एक ही उत्तर है, वह है हिन्दू धर्म में निहित व्यवस्थाएँ, जो न्याय और समता पर आधारित नहीं होकर भेदभाव पर आधारित हैं।
हिन्दू धर्म की ये आत्मघाती व्यवस्था ही भारतीय समाज को जड बनाए हुए है। बाबा साहब ने देखा कि कट्टर हिन्दू धर्मावलम्बी इन व्यवस्थाओं को बदलने के लिए तैयार नहीं है तो उन्होंने इस छेद वाली नाव को छोडकर बेहतर आश्रय प्राप्त करना उचित समझा।
डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर के १९३५ में हिन्दू धर्म छोडने की इस घोषणा के २१ वर्ष बाद १४ अक्टूबर, १९५६ को नागपुर में अपने पाँच लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली। इन इक्कीस वर्षों के लम्बे अन्तराल में क्या बाबा साहब अम्बेडकर जैसे महान् चिन्तक, विचारक, सामाजिक परिवर्तक चुप रहे होंगे। नहीं, वे चुप नहीं रहे। वे बराबर इस अन्यायपरक सामाजिक व्यवस्था को बदलने की सोचते रहे।
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर द्वारा इतने विशाल जनसमूह के साथ किया गया यह धर्मान्तरण महज एक धर्मान्तरण नहीं था। यह इस देश में सामाजिक क्रान्ति की शुरुआत थी, जिसका सपना बाबा साहब ने देखा था। एक वर्ण विहीन, जाति विहीन समाज का सपना, जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुता पर आधारित था।
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर धर्म को व्यक्तिगत सरोकार नहीं मानकर सामाजिक सरोकार मानते हैं। वे धर्म की आवश्यकता को भी स्वीकार करते हैं। ऐसा नहीं होता तो वे धर्मान्तरण नहीं करते, केवल हिन्दू धर्म का त्याग भर करते, बौद्ध धर्म को अंगीकार नहीं करते और न ही इतना विशाल आयोजन करते।
उस ऐतिहासिक घटना के विशाल आयोजन की मात्र एक झलक प्रस्तुत है -
दशहरा का दिन था। बहुजन समाज के लाखों स्त्री-पुरुष, बाल, वृद्ध नागपुर की दीक्षा भूमि की ओर पानी के रेले की तरह बढे जा रहे थे। इनके लिए बाबा साहब किसी साक्षात् भगवान से कम नहीं थे। बाबा साहब के प्रति उनकी अपार श्रद्धा थी। बाबा साहब जैसे महापुरुष ने ही उनके हजारों वर्षों से नकारे जाते रहे मानव अधिकारों को बहाल करने के लिए लम्बा संघर्ष करके उसमें सफलता प्राप्त की थी।
दीक्षा भूमि पर लगभग पाँच लाख लोगों का सैलाब उमडा था। वे बाबा साहब का बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे। कुछ ही क्षणों बाद बाबा साहब ने श्वेत रेशमी धोती और श्वेत कोट में पत्नी सविता के साथ दीक्षा भूमि में प्रवेश किया और मंच पर पहुँच गएँ कुशीतारा के भिक्षु चन्द्रमणी द्वारा उन्हें दीक्षा प्रदान की गई।
इस दीक्षा ग्रहण के बाद अपने द्वारा तैयार की गई २२ प्रतिज्ञाओं को बाबा साहब ने उपस्थित विशाल जन समुदाय को सम्बोधित करते हुए पढा।
अपने सम्बोधन के पश्चात् जब बाबा सहाब ने उस विशाल जन समुदाय का आह्वान किया कि जो बौद्ध धर्म ग्रहण करना चाहते हैं, वे खडे हो जाएँ तो पूरा का पूरा जन सम्प्रदाय खडा हो गया। इस प्रकार यह मात्र धर्म परिवर्तन की घटना नहीं होकर एक ऐतिहासिक घटना बन गई। यह सामाजिक क्रान्ति का, अन्यायपरक सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन का उद्घोष था।
इससे प्रमाणित होता है कि बाबा साहब अम्बेडकर धर्म को �सामाजिक विरासत� मानते हैं तथा उसकी आवश्यकता को स्वीकारते हैं। बाबा साहब ने कहा था, ��मनुष्य को जीवित रहने के लिए केवल भोजन की आवश्यकता ही नहीं होती। उसके पास मस्तिष्क भी होता है जिसके लिए विचारों की खुराक आवश्यक है।�� उनके अनुसार मनुष्य की इस मानसिक भूख को मिटाने के लिए धर्म महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अतः धर्म को सामाजिक, नैतिकता पर आधारित सामाजिक मूल्यों के आधार पर जाँचा-परखा जाना चाहिए।
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर जैसे विद्वान, न्यायविद और समाज सुधारक द्वारा इस प्रकार हिन्दू धर्म का परित्याग करना इस धर्म की घोर विसंगतियों और सामाजिक पाखण्ड की एक तीव्र प्रतिक्रिया थी। जिस महान् पुरुष में भारत का संविधान रचने की सामर्थ्य हो, उसे मात्र इसी कारण एक निरक्षर भट्टाचार्य एवं संस्कारविहीन ब्राह्मण से नीच माना जाता रहे कि वह एक महार के घर में पैदा हुआ है। इससे बडा सामाजिक अन्याय और क्या होगा और इस अन्याय का प्रतिकार बाबा साहब ने हिन्दू धर्म का त्याग कर दिया।
बाबा साहब हिन्दू धर्म के अन्याय और भेदभाव पर आधारित नियमों के प्रति आस्थावान नहीं थे। वे सच्चे धर्म के रूप में उसे सिद्धान्तों पर आधारित धर्म बनाना चाहते थे इसके लिए उन्होंने पाँच अनिवार्यताएँ बनाई थीं, ��१. हिन्दू धर्म के लिए एक मानक शास्त्र हो, २. पुजारियों की नियुक्तियाँ वंश के आधार पर नहीं होकर खुली परीक्षा के माध्यम से हों, ३. पुजारी के लिए राज्य की सनद आवश्यक हो, ४. कानूनन पुजारियों की संख्या निर्धारित हो,५. पुजारियों के चरित्र, विश्वास और पूजा का सरकार पर्यवेक्षण करे।
१४ अक्टूबर,१९५६ को वह ऐतिहासिक क्षण था जब बाबा साहब ने दीक्षा लेकर अपने करीबी अनुयायियों के लिए मानवतावादी बौद्ध धर्म का मार्ग प्रशस्त किया। बाबा साहब ने सब धर्मों की बहुत अच्छी तरह जाँच परख करके ही भारत भूमि पर उपजे अपने ही बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और भारतीय धर्म निरपेक्ष संविधान का पूरी तरह से पालन किया। उनके द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा लेना ही अपने आप में बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय और प्रज्ञा-शील करुणा पर आधारित सुदृढ सोपान है।
बाबा साहब जब बैरिस्टर बन कर स्वदेश लौटे थे तो उनके मन में एक ही साध थी, भारत की एक तिहाई जनसंख्या को छुआछूत की घृणित अवस्था से मुक्त कराना। अछूतों को आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक समानता दिलाने में वे अपना सब कुछ लगा देने को कटिबद्ध थे।
जिस पीडा को, जिस अपमान को उन्होंने भोगा था, अपने जीवन काल में कदम-कदम पर हिन्दू धर्म की रूढ व्यवस्थाओं के जो घाव उन्होंने झेले थे उसे वे कैसे भूला सकते थे*? जब उन जैसे उच्च शिक्षित, व्यक्ति के साथ यह अंधा समाज इस तरह पेश आता है तो गाँव में रहने वाले दीन-दुर्बल और अनपढ बन्धु की क्या स्थिति हो सकती है*? इसका अनुमान वे सहज ही लगा सकते थे। उन्हें ऐसी व्यवस्थाओं के प्रति कोई आसक्ति नहीं थी जिसमें मनुष्य को पशुओं से भी बदतर समझा जाता
है। वे नहीं चाहते थे कि उनकी आने वाली पीढी ऐसी समाज व्यवस्था को मानती रहे।
हिन्दू समाज में व्याप्त ऊँच-नीच और छुआछूत संबंधी अमानवीय व्यवस्था विरोधी आंदोलनों का एक लम्बा क्रम उपलब्ध है। इसी क्रम में बाबा साहब अम्बेडकर भी भारतीय समाज से इस कलंक कालिमा को मिटाने के लिए सामाजिक क्रान्ति करने के लिए कृतसंकल्प थे।
धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक समता के प्रबल पक्षधर बाबा साहब अम्बेडकर ने जीवन भर इसके लिए संघर्ष किया। संघर्ष के इस दौर में उन्होंने यह नहीं देखा कि वे जिनसे संघर्ष कर रहे हैं, वे कौन हैं*? चाहे वह सम्पूर्ण हिन्दू समाज हो या विशाल औपनिवेशिक साम्राज्य का धनी ब्रिटिश राज या महात्मा गाँधी जैसा महामानव।
हिन्दू धर्म के परित्याग के उनके इस निश्चय के पीछे कोई दुर्भावना नहीं थी। यह कोई प्रतिक्रिया नहीं थी, बल्कि एक ललक थी, एक इच्छा थी कि हिन्दू समाज उनके इस दर्द को, उस व्यथा को समझेगा तथा अपनी संकीर्णताओं को समाप्त करेगा, जडताओं को त्यागेगा, किन्तु ऐसा नहीं हुआ, इसी कारण उन्हें धर्मान्तरण का मार्ग अपनाना पडा।
वे हिन्दू धर्म विरोधी कतई नहीं थे। वे हिन्दू धर्म के दोहरे मानदण्डों के विरोधी थे। हिन्दू कोड बिल पारित कराने के उनके अथक प्रयासों के पीछे भी एक ही उद्देश्य था कि इस धर्म में जो विसंगतियाँ हैं, वे दूर हो सकें और सब हिन्दू एक �कॉमन पर्सनल लॉ� से नियंत्रित हों।
नागपुर में ही एक विशाल जनसमुदाय को सम्बोधित करते हुए बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने कहा था, ��लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने यदि अछूत वर्ग में जन्म लिया होता, एक अछूत की पीडा को भोगा होता तो वे �स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, इसे मैं लेकर रहूँगा� का नारा बुलन्द करने के स्थान पर यह नारा बुलन्द करते कि �समानता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, इसे मैं लेकर रहूँगा।��
बाबा साहब के इन हृदयोद्गारों से स्पष्ट ध्वनित होता है कि वे राजनीतिक स्वतंत्रता की अपेक्षा सामाजिक समानता को महत्त्वपूर्ण मानते थे। स्वतंत्रता की लडाई में वे देश के बडे नेताओं के साथ मिलकर प्रयास कर रहे थे। किन्तु साथ ही वे यह भी मानते थे कि मानवीय समानता के अधिकार की गारण्टी के बिना स्वतंत्रता अधूरी है। उनका कहना था, सामाजिक, आर्थिक समानता के बिना स्वतंत्रता का लाभ पिछडों तक नहीं पहुँचेगा। इसलिए वे समानता के लिए संरक्षण की गारण्टी चाहते थे।
बाबा साहब ने वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों का गहन अध्ययन करके अपने लेखों और पुस्तकों द्वारा यह प्रमाणित कर दिया कि हिन्दू धर्म में छुआछूत के लिए कोई स्थान नहीं है। उन्होंने प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध किया कि मनुष्य जन्म से ब्राह्मण व अछूत नहीं होता, वह कर्मों से ब्राह्मण और अछूत बनता है। इसलिए वर्ण व्यवस्था की प्रबल प्रतिपादक �मनुस्मृति� को डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर ने लाखों के जन समूह के बीच जलाकर उसकी मान्यताओं का विरोध किया था। इनकी योग्यता, विद्वत्ता व गुण ग्राह्यता के कारण ही पंडित नेहरू ने इन्हें अपने मंत्रिमण्डल में भारत के प्रथम विधि मंत्री के रूप में शामिल किया था। यही नहीं, भारत जैसे विशाल देश का संविधान निर्माण का महान् दायित्व भी उनके सक्षम कंधों पर डाला गया, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। संविधान में उन्होंने देश के प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्रता, समानता, न्याय दिलाने का पूरा-पूरा ध्यान रखा।
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर की गिनती विश्व के महानतम छः विद्वानों में होती है। भारतीय बौद्ध जगत् में उन्हें बौद्ध धर्म का उन्नायक माना जाता है। यह कोई अतिश्योक्ति नहीं वरन् एक सच्चाई है। उनके द्वारा लिखित ग्रंथ �बुद्ध और उनका धम्म्� का विश्व बौद्ध जगत् में विशिष्ट स्थान है।
यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि बाबा साहब ने बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों को अपनाया था, उसकी रूढयों को नहीं। यह उनके नागपुर के दीक्षा समारोह के अवसर पर दिए गए वक्तव्य से स्पष्ट हो जाता है। वे बौद्ध धर्म में प्रचलित हीनयान और महायान के परम्पराओं को नहीं मानते थे। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि धर्म सिद्धान्तों और नैतिकताओं का नाम है, रूढयों का नहीं। बुद्ध की क्रान्ति के बाद भारत में बाबा साहब के इस धर्मान्तरण से ही सामाजिक क्रान्ति का शंखनाद फूँका है और इस सडी-गली सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन का बिगुल बजा है। विश्व में ऐसी कोई विचारधारा नहीं जो समानता, स्वतंत्रता और बन्धुता की इस क्रान्तिकारी विचारधारा से बढकर हो और इसे काट सके। इसलिए यह धर्मान्तरण महज धर्मान्तरण नहीं वरन् एक महान् सामाजिक क्रान्ति की शुरुआत है।

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