बीजेपी का उद्धार नए नेतृत्व में ही संभव
कुछ ही माह पूर्व केंद्र में सत्ता मे आने के सपने संजोने वाली भारतीय जनता पार्टी अपने जीवनकाल में पहली सर्वाधिक गंभीर घड़ी से गुजर रही है। प्रधानमंत्री पद के दावेदार ‘
लौहपुरुष’
लालकृष्ण आडवाणी अपने असीम पद मोह के चलते पार्टी के लिए बड़ा सिरदर्द बन बैठे हैं। जिस तरह की जूतम-
पैजार देश के सबसे बड़े विपक्षी दल में चल रही है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत को (
ऐतिहासिक)
प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित कर अपनी नाराजगी जाहिर करनी पड़ी है,
वह निश्चित रूप से पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए दुखदायी है।संघ और भाजपा के रिश्ते सर्वविदित हैं। कुछ लोगों का मानना है कि भाजपा संघ से जितनी दूरी बनाए रखेगी,
उतना ही अच्छा रहेगा। वहीं कई अन्य लोगों का मानना है कि संघ ने जबसे भाजपा पर अपनी पकड़ ढीली की है,
पार्टी में सत्ता की अंदरूनी लड़ाई व भ्रष्टाचार बढ़ा है और उसकी हिंदुत्व की पहचान कमजोर हुई है। आडवाणी और उनके गुट ने सभी को दरकिनार करके अपनी दादागीरी की। भाजपा का आम कार्यकर्ता इससे काफी दुखी है और इसी का परिणाम था कि गत लोकसभा चुनावों में पार्टी बुरी तरह से पराजित हुई। आरोप-
प्रत्यारोप के ताजे दौर में पार्टी और कमजोर होती जा रही है। शिमला चिंतन बैठक,
जिन्ना विवाद,
जसवंत सिंह का पार्टी से निष्कासन,
शौरी का असाधारण आक्रमण,
भागवत की प्रेस कांफ्रेस और अन्य सारी घटनाओं से साफ है कि पार्टी मंे आडवाणी गुट और स्वयं आडवाणी के खिलाफ भयानक नाराजगी है। उनकी पाकिस्तान यात्रा के बाद जिस तरह संघ की नाराजगी की वजह से उन्हें पद त्यागना पड़ा था,
उससे बदतर हालात आज दिखाई दे रहे हैं। आडवाणी की चमक अब पूरी तरह से उड़ चुकी है। उनके लोग (
वैंकेया नायडू,
सुषमा स्वराज,
अरुण जेटली,
अनंत कुमार)
पर पार्टी का बड़ा खेमा विश्वास नहीं करता है। इन्हीं नेताओं के कारण सारा बखेड़ा खड़ा हुआ है।ऐसे में संघ और भाजपा को चाहिए कि युवा व साफ छवि वाले नेताओं को आगे लाएं और अपनी डूबती नैया को संभालें। आडवाणी के इस्तीफे से संकट का काफी कुछ समाधान हो सकेगा। देखना होगा कि वे स्वयं कब तक लोकसभा में विपक्ष के नेता का पद त्यागते हैं और किसे पार्टी अध्यक्ष बनवाते हैं। जिस तरह के झगड़े भाजपा मंे हो रहे हैं,
ताकत आजमाइश हो रही है,
राजनीति खेली जा रही है,
उससे भाजपा वाकई एक ‘
अलग पार्टी’
दिखाई दे रही है।
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