क्षणिक सुख की तलाश में भटकता युवा मन
श्रीमद्भगवत गीता में कहा गया है-
कर्म किए जाओ फल की चिंता मत करो,
लेकिन आज की युवा पीढ़ी इन बातों में यकीन नहीं रखती बल्कि यह पीढ़ी विचलित मानसिकता और नकारात्मक सोच का शिकार है और इसी वजह से यह दिशाहीन और निरुद्देश्य ज्यादा नज़र आती है। यह पीढ़ी अपने मां-
बाप द्वारा बनाए गए समाज के उसूलों,
रीति-
रिवाजों और मान्यताओं को तोडऩे में कुछ ज्यादा ही उतावली दिखती है। इन्हे इन मान्यताओं को तोड़कर जो सुख मिलता है,
शायद वैसा सुख बड़ी सफलता हासिल करने के बाद भी नहीं मिलता। उसी के फलस्वरूप वे नतीजा भुगत रहे हैं। मनुष्य के जीवन में कुछ ऐसे क्षण होते हैं जो '
मोमेंट्स ऑफ एक्सपोजरÓ
माने जाते हैं। अगर उन क्षणों में भूल हो जाए तो वो भूल जिंदगी भर पीछा नहीं छोड़ती। युवा अवस्था में ऐसे क्षण सर्वाधिक होते हैं जब युवाओं का मन खुला होता है और जो भी उसमें प्रवेश कर जाता है वह अपना स्थान हमेशा के लिए बना लेता है और उसकी छवि आत्मा में अंकित हो जाती है। अगर मनुष्य के जीवन की दिशा निर्धारित न हो तो वह दिशाहीन हो जाता है। जीवन मूल्य न केवल मनुष्य का मूल्य निर्धारित करते हैं बल्कि उसके व्यक्तित्व का निर्माण भी करते हैं। लेकिन आज की युवा पीढ़ी अपनी दिशा उचित-
अनुचित मानदंडों के आधार पर नहीं,
बल्कि निर्धारित मूल्यों को छोड़ कल्पनाओं,
प्रलोभन,
भय या लालच के आधार पर तय करती है। मनोवैज्ञानिकों की यह अवधारणा सर्वथा सत्य है कि हमारे मन-
मस्तिष्क में उठने वाली वैचारिक तरंगें,
भावनाएं एवं कल्पनाएं हमारे व्यक्तित्व एवं कृतित्व को प्रकाशित और प्रभावित करती हैं और सकारात्मक चिंतन से हमें सकारात्मक जीवन-
निर्माण की प्रेरणा मिलती है। हम जैसी मनोस्थिति बनाए रखते हैं,
यह दुनिया भी ठीक वैसी बन आती है। अत:
जीवन में जो अनुभूतियां मूल्यवान हैं,
उनको उतना ही ज्यादा संभालना होता है। उसे सदा अपने हृदय के करीब रखना चाहिए क्योंकि एक बार आपको अच्छाई और बुराई का �
याल आ जाए तो आप जीवन भर अपने उद्देश्य से भटके बिना अपने जीवन की बागडोर अपने ही हाथों में रख सकते हैं। खुद को अपने विवेक अर्थात स्व के अधीन बनाकर और सकारात्मक सोच-
विचार से जीवन भर आनंदित रहा जा सकता है। लेकिन ऐसा लगता है कि आज की युवा पीढ़ी समाज में व्याप्त कुरीतियो और असंगतियों को ही नैतिक मूल्य मान बैठी है। इसका प्रमुख कारण है-
युवाओं की बढ़ती महत्वाकांक्षा और सुख हासिल कर लेने की हसरतें। साथ ही इसकी जि�
मेदार हैं उनके मां बाप की विकृत मनोदशा जो बिना सोचे समझे कच्ची उम्र में ही अपने बच्चों को सब कुछ सौंप देते हैं और उनके बड़े से बड़े गुनाह पर पर्दा डालते हैं,
भले ही आगे चलकर उन्हे खुद भुक्तभोगी बनना पड़े। रहीम कवि ने कहा है-
'
रहिमन अति न कीजिए,
रहि रहिए निज कानि,
सहिजन अति फूलै फलै,
डारपात की हानि।।इसका परिणाम यह हो रहा है कि युवा पीढ़ी क्षणिक सुख को ही जीवन का परम सत्य मान कर इसकी तलाश नाइट-
क्लबों,
बीयर बार,
मंहगे होटलों,
अश्लील साहित्य और सेक्स वर्करों में ढूंढते फिर रहे हैं। बड़े अपराधों में बढ़ती संलिप्तता और जरूरत पडऩे पर अपने पालन-
पोषण करने वाले की हत्या से भी न चूकने वाले ये युवा इस बात के द्योतक हैं कि यह पीढ़ी किस अंधी राह पर बढ़ चुकी है। लेकिन सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि खुद युवा पीढ़ी यह नहीं समझ पा रही है कि वह एक ऐसे अंधे कुएं में जा रही है जिसमें से उसे निकाल पाना किसी भी मायने में आसान नहीं है।
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