Thursday, December 2, 2010

उफ़ ये शहरी जिंदगी

उफ़ ये शहरी जिंदगी
बसों में घुटती रहती है
रोज जागती सुबह जल्दी और
दिनभर भागती रहती है|
       ना कोइ रंग है इसमें और
ना कोइ खुशी है,
हर दिन एक सा
हर पल मायूसी है|
       ना यहाँ है खुला आसमान और
ना हरियाली है
यहाँ है लंबी-लंबी इमारतें और
मोटरगाड़ी है |
   समय नहीं है यहाँ किसी के पास
न दोस्ती-यारी है
इन्सान अकेला है यहाँ
हर दिन भारी-भारी है|
      लोग यहाँ ऐसे जीते है
जैसे जहर पीते है
कैसे घुट-घुट कर जीते है
कैसे घुट-घुट कर मरते है|
      उफ़ ये शहरी जिन्दगी
बसों में घुटती रहती है|

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