Wednesday, August 10, 2011

अमेरिका को लगा आर्थिक ग्रहण

बीती कई रातों से अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की नींद हराम करने वाला कर्ज संकट थोड़े समय के लिए टल गया है। आखिरी पलों में डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन सांसदों के बीच हुए समझौते के बाद सरकारी कर्ज की सीमा बढ़ाने संबंधी विधेयक को मंजूरी मिल गई। अगर सीनेट में कर्ज सीमा बढ़ाने के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया जाता तो अमेरिका कर्ज का जरूरी भुगतान नहीं कर पाता। ऐसे में दुनिया की आर्थिक महाशक्ति की साख खराब होने से समूची दुनिया के बाजारों के डूबने का खतरा पैदा हो गया था। सवाल उठता है कि आखिर दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था अमेरिका के सामने यह नौबत कैसे आई।अमेरिका में 1960 के बाद से ही कर्ज की अधिकतम सीमा में 78 बार इजाफा किया गया और फिलहाल 14.3 खरब डॉलर है। जब बेहतर दिन थे, तो रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक दोनों दलों ने कर्ज सीमा में बढ़ोत्तरी की थी। मगर अब अमेरिकी अर्थव्यवस्था बुरी तरह संकट में फंसी हुई है, लिहाजा दोनों दलों के बीच अपने-अपने वोटरों के हितों के लिए तलवारें खींच गई हैं।रिपब्लिकन पार्टी और डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच कर्ज की सीमा बढ़ाने को हुए दंगल का जवाब अमेरिकी समाज के ताने-बाने में छुपा है। अमेरिका में रह रहे अप्रवासी, अश्वेत और निचले दर्जे के श्वेत नागरिक आमतौर पर डेमोक्रेटिक रुझान वाले माने जाते हैं जबकि मध्यवर्ग और पूंजीपति रिपब्लिकन पार्टी को समर्थन देते हैं। अमेरिका का मध्यवर्ग 1960 के दशक में वहां की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उभार के साथ अपने चरम पर था। 1972 में तेल की कीमतों में हुई बेहताशा बढोतरी ने अमेरिका समेत पश्चिमी देशों के मैन्युफेक्चरिंग सेक्टर की कमर तोड़ कर रख दी। अमेरिका मध्यवर्ग ने नौकरी पाने के लिए सर्विस सेक्टर का रूख किया मगर यहां वेतन कम था। सर्विस सेक्टर की ओर हुए ट्रांसफर को इस बात से समझा जा सकता है कि अमेरिका में 40 साल से औसत वेतन में इजाफा नहीं हुआ है।बीते दो दशकों से सर्विस सेक्टर पर भी भारत, वियतनाम और चीन जैसे एशियाई देश छा गए हैं वहीं दूसरी ओर अमेरिकी मध्यवर्ग वित्त, कानून और एकाउंटिंग जैसे ऊंचे वेतन वाले सेक्टरों में नौकरियां खोता गया। विडंबना देखिए, अमेरिकी मध्यवर्ग ने संभलने की बजाए कर्ज लेकर जीने के अपने खर्चीले अंदाज को कायम रखा। 2008 के आखिर में कर्जों का बुलबुला फूट गया और मध्यवर्ग के हाथ में वित्तीय संस्थाओं के बिना चुकाए गए बिल बचे रह गए। 2008 में अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव में दोनो पार्टियों ने अपनी-अपनी आर्थिक नीतियों के मुताबिक ही जनता से वादे किए। रिपब्लिकन पार्टी ने कहा कि करों में कोई वृद्धि नहीं होने दी जाएगी और सरकार के सार्वजनिक खर्च में कटौती के जरिए कर्ज संकट का समाधान किया जाएगा। अमेरिका की बढ़ती बूढ़ी आबादी भी ओबामा प्रशासन के गले की हड्डी बन गई है। बूढ़ी आबादी की अधिकता के कारण पेंशन और स्वास्थ्य क्षेत्र में सरकार का बिल बढ़ गया है वहीं युवा आबादी की कमी के कारण उद्योगों की श्रम लागत बढ़ गई है। ओबामा ने चुनाव में यूनिवर्सल हेल्थकेयर और बेहतर पेंशन का वादा किया था, इस कारण डेमोक्रेटिक पार्टी सार्वजनिक खर्चों में कमी नहीं कर सकती हैं। वहीं सरकारी कर्ज की अधिकतम सीमा बढ़ाने से पहले रिपब्लिकन पार्टी ओबामा प्रशासन से सार्वजनिक खर्चों में कटौती करने का वादा लेना चाहती थी। यही समस्या सारे विवाद की जड़ है और पिछले तीन महीने से दोनों पार्टियों के बीच विवाद था। दो अगस्त को दोनों पार्टियों के बीच समझौता हो गया है लेकिन इसमें बराक और अमेरिकी के गरीब तबके के लिए खुश होने की कोई वजह नहीं है। समझौते के तहत राष्ट्रीय ऋण सीमा में 2,100 अरब डॉलर की बढ़ोतरी होगी लेकिन सरकार को अपने खर्चों में 2,400 अरब डॉलर की कटौती करनी होगी। वैसे तो अमेरिका के मौजूदा संकट की जड़ें उसकी आर्थिक और विदेश नीतियों में छिपी हैं मगर इसका तात्कालिक दोषी अमेरिका को हालिया दो युद्धों में धकेलने वाले रिपब्लिकन हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था की चूलें हिल चुकी थी लेकिन रोनाल्ड रीगन से लेकर जार्ज डब्ल्यू बुश तक रिपब्लिकन पार्टी के ही नुमाइंदों ने जनता का पैसा दुनियाभर की लड़ाइयों में झोंक दिया। फौरी तौर पर कर्ज संकट भले ही टल गया हो लेकिन सरकारी खर्चों पर मोलतोल और ब्रिंकमैनशिप (संकट को तबाही के कगार से थोड़ा आगे खींचना) ने पूरी दुनिया के सामने अमेरिका की पोल खोल दी है। (साभार -दैनिक भास्कर )






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