Wednesday, August 10, 2011

मीडिया में दलितों के लिए जगह खाली करें द्विज(ब्राह्मण)

भारतीय मीडिया पर द्विजों का कब्जा है और आंकड़े चीख-चीख कर बता रहे हैं कि दलित हाशिये पर हैं। राष्ट्रीय मीडिया पर द्विजों के कब्जे को लेकर जब सर्वे सामने आया तो मीडिया जगत से जुड़े दिग्गजों की नींद उड़ गयी। बराबरी-गैरबराबरी का सवाल उठा। जितने सवाल उठे उससे ज्यादा द्विजों ने अपनी हिलती कुर्सी को खतरे में पाता देख गोलबंद हुए और अपने उपर होते हमले के खिलाफ जवाब देने लगे। गिने चुने ही दलित मीडिया में हैं और वह भी उच्च पदों पर नहीं। ‘राष्ट्रीय मीडिया पर उंची जातियों का कब्जा’ सर्वे, केवल सर्वे नहीं था बल्कि लोकतंत्र को दिशा देने वाले सबसे मजबूत तंत्र मीडिया के द्विज प्रेम की पोल खोली दी थी। इससे मीडिया पर काबिज द्विज बौखला उठे। राष्ट्रीय मीडिया ही नहीं बल्कि राज्य व क्षेत्रीय मीडिया की भी स्थिति भी कमोवेश एक जैसी है। कहा जा सकता है कि हर जगह मीडिया में द्विजों का ही कब्जा बरकरार है और दलित हाशिये पर हैं।आंकडे गवाह हैं कि भारतीय मीडिया में दलित और आदिवासी फैसला लेने वाले पदों पर नहीं है। राष्ट्रीय मीडिया के लगभग 300 प्रमुख पदों पर एक भी दलित और आदिवासी नहीं है। कहा जाता है कि देश व समाज को विकसित करना है तो अंतिम कतार में खड़े हर व्यक्ति को एक साथ लेकर आगे बढ़ना होगा। ऐसे में यह बात मीडिया के साथ भी लागू होती है ? मीडिया पर काबिज द्विज समाज को दलितों के लिए जगह बनानी होगी। बल्कि बराबरी और गैरबराबरी के फासले को मिटाने के लिए दलित पत्रकारों को वह जगह देनी होगी जिसके लिए वर्षो से उन्हें एक साजिश के तहत मीडिया की चारदिवारी के बाहर ही रखी गयी।
देश की कुल जनसंख्या में मात्र आठ प्रतिशत होने के बावजूद द्विजों का मीडिया हाउसों पर 71 प्रतिशत शीर्ष पदों पर कब्जा बना हुआ है। जहां तक मीडिया में जातीय व समुदायगत होने का सवाल है तो आंकड़े बताते हैं कि कुल 49 प्रतिशत ब्राह्मण, 14 प्रतिशत कायस्थ, वैश्य/जैन व राजपूत सात-सात प्रतिशत खत्री नौ, गैर द्विज उच्च जाति दो और अन्य पिछड़ी जाति चार प्रतिशत है। इसमें दलित कहीं नहीं आते। निजी मीडिया में जो भी नियुक्ति होती है वह इतने ही गुपचुप तरीके से कि मीडिया हाउस के कई लोगों को बाद में पता चलता है।
मीडिया हाउस का संपादक/मालिक किस जाति विशेष का है वह साफ झलकने लगता है। आंकड़े/सर्वे चौंकाते हैं, मीडिया के जाति प्रेम को लेकर ! पोल खोलते हैं। जाति गठजोड़ वाले ही केवल, इसमें शामिल नहीं है बल्कि प्रगतिशील बनने वाले मीडिया हाउस या उसे चलाने वाले मालिक/संपादक भी शामिल हैं। अखबारों को उसके नाम के साथ-साथ जाति से जोड़ कर देखा जाता है। खुल कर अपनी जाति के लोगों को मौका दिये जाने के आरोपो के घेरे में आते रहते हैं । ऐसे में मीडिया में बराबरी-गैर बराबरी या यों कहें जाति हिस्सेदारी की बात तो स्वतः संपादकों या मालिकों के जाति प्रेम से उनकी पोल खुल जाती है। पटना के एक पत्रकार प्रमोद रंजन ने ‘‘मीडिया में हिस्सेदारी’’ में साफ कहा कि बिहार की राजधानी पटना में काम कर रहे मीडिया हाउसों में 87 प्रतिशत सवर्ण जाति के हैं। इसमें, ब्राह्यण 34, राजपूत 23, भूमिहार 14 एवं कायस्त 16 प्रतिशत है। हिन्दू पिछड़ी-अति पिछड़ी जाति, अशरफ मुसलमान और दलित समाज से आने वाले मात्र 13 प्रतिशत पत्रकार हैं। इसमें सबसे कम प्रतिशत दलितों की है। लगभग एक प्रतिशत ही दलित पत्रकार, बिहार की मीडिया से जुड़े हैं। वह भी कोई उंचे पद पर नहीं है। महिला सशक्तिकरण के इस युग में दलित महिला महिला पत्रकार को ढूंढना होगा। बिहार के किसी मीडिया हाउस में दलित महिला पत्रकार नहीं के बराबर है। आंकड़े बताते हैं कि दलित महिला पत्रकारों का प्रतिशत शून्य है। जबकि पिछडे़-अति पिछड़े जाति की महिला पत्रकारों का प्रतिशत मात्र एक है। साफ है कि दलित-पिछड़े वर्ग के लोग पत्रकारिता पर हाशिये पर है।
भारतीय परिदृष्य में अपना जाल फैला चुके सेटेलाइट चैनल यानी खबरिया चैनलों की स्थिति भी कमोवेश एक ही जैसा है। यहां भी कब्जा सवर्ण हिन्दू वर्ग का ही है। 90 प्रतिशत पदों पर द्विज काबिज हैं। हालांकि हिन्दू पिछड़ी जाति के सात प्रतिशत, अशराफ मुसलमान तीन एवं महिलाएं 10 प्रतिशत है। यहां भी दलित नहीं है।
मीडिया में दलितों के नहीं के बराबर हिस्सेदारी भारतीय सामाजिक व्यवस्था की पोल खोलने के लिए काफी है। सर्वे या फिर सामाजिक दृष्टिकोण के मद्देनजर देखा जाये तो आजादी के बाद भी दलितों के सामाजिक हालात में क्रांतिकारी बदलाव नजर नहीं आता, बस कहने के लिए राजनैतिक स्तर पर उन्हें मुख्यधारा में लाने के हथकंड़े सामने आते है। जो हकीकत में कुछ और ही बयां करते हैं।
जरूरी काबिलियत के बावजूद मीडिया में अभी तक सामाजिक स्वरूप के मद्देनजर दलितों का प्रवेश नहीं हुआ है। द्विज कहते फिरते हैं कि किसने दलितों को मीडिया में आने से रोका ? सवाल भी उनका, जवाब भी उनका। द्विजों का मीडिया पर काबिज होने और दलितों का दूर रहने के कारणों के कई पहलूओं को खंगालना होगा। सबसे पहले मीडिया हाउस किसका है उस पर चर्चा करनी होगी। बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं। देश के मीडिया हाउसों को चलाने वाले पूंजीपतियों में द्विजों का ही वर्चस्व है। जाहिर है सवाल के जवाब के लिए ज्यादा माथा पच्ची करने की जरूरत नहीं। दूसरा, मीडिया हाउस को चलाने वाले संपादक-प्रबंधक कौन है ? तो यह मीडिया के राष्ट्रीय सर्वे से साफ हो गया है कि निर्णय वाले पद पर भी वही द्विज काबिज है। अब बात नियुक्ति की, तो मीडिया में होने वाली नियुक्ति सवालों के घेरे में रहा है। दुनिया भर को उपदेश देने वाले मीडिया हाउस में नियुक्ति की कोई विवेकसंगत या पारदर्शी प्रणाली नहीं है। सभी जगह जुगाड़ शब्द चल रहा है। मीडिया के विशेषज्ञ मानते हैं कि मीडिया जगत में दस से पचास हजार रूपये महीने तक की नियुक्तियां इतनी गोपनीयता के साथ की जाती है कि उनके बारे में तभी पता चलता है जब वे हो जाती है। इन नियुक्तियों में ज्यादातर उच्च द्विज ही होते हैं। वजह है कि मीडिया चाहे वह प्रिन्ट (अंग्रेजी-हिन्दी) हो या इलेक्ट्रानिक, फैसले लेने वाले सभी जगहों पर उच्च वर्ण की हिस्सेदारी 71 प्रतिशत है। इनके फैसले पर सवाल उठे या न उठे इस सच को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।वहीं दूसरे पहलू के तहत जातिगत आधार सामने आता है। जहां तक सरकारी मीडिया का सवाल है तो वहां एकाध दलित-पिछड़े नजर आ जाते हैं। देश की कुल जनसंख्या में मात्र आठ प्रतिशत द्विजों की हिस्सेदारी है और मीडिया हाउसों में फैसले लेने वाले 71 प्रतिशत शीर्ष पदों पर उनका कब्जा बना हुआ है। कास्ट कंसीडरेशन की वजह से दलितों को मीडिया में जगह नहीं मिली। जो भी दलित आए, वे आरक्षण के कारण ही सरकारी मीडिया में आये, निजी मीडिया में नहीं। रेडियो-टेलीविजन में दलित दिख जाते हैं दूसरी जगहों पर कहीं नही दिखते। जहां तक मीडिया में दलितों के आने का सवाल है तो उनको आने का मौका ही नहीं दिया जाता है। मामला अवसर का है। दलित डाक्टर, इंजीनियर, डिजाइनर आदि को अवसर मिला तो उन्होंने बेहतर काम किया। बात अवसर का है और दलितों को पत्रकारिता में अवसर नहीं मिलता है। पत्रकारिता में अवसर कठिन हो गया है। मीडिया प्रोफेशन में कोई दलित लड़का पढ़कर, सर्टिफिकेट ले भी लें और वह काबिल हो भी जाय, तकनीक उसको आ भी जाये, तो भी उसकी जाति सबसे बड़ा कारण बन जाता है। पत्रकारिता में दलितों की हिस्सेदारी या फिर उनके प्रति सार्थक सोच को सही दिशा नहीं दी गई। तभी तो हिन्दी पत्रकारिता पर हिन्दू पत्रकारिता का भी आरोप लगता रहा है। हिन्दी पत्रकारिता पूर्वाग्रही और पक्षपाती पत्रकारिता रही है। जात-पात के नाम पर केवल समाज ही नहीं बटा बल्कि समाज को राह दिखाने वाला मीडिया भी बटा है। आरक्षण का सवाल हो या मंडल मुद्दा, मीडिया का जो पक्ष सामने आया, उसमें वह बनता दिखा।मीडिया में दलितों के नहीं होने की सबसे बड़ी वजह देश में व्याप्त जाति व वर्ण व्यवस्था हैं। जो उपर से भले ही नहीं दिखता हो पर अंदर - अंदर इसकी जड़े इतनी गहरी है कि उसे हिला पाना मुश्किल है। हकीकत यह है कि इसे सालों से सत्ता के करीब रहने वाला द्विज नहीं चाहता कि उसकी पकड़ कम हो ? मीडिया में भी व्यवस्था जाति और वर्ण पर आधारित है जो एक पिरामिड की तरह है। जहां ब्राह्मण सबसे उपर और दलित सबसे नीचे है। जो भी दलित मीडिया में आते हैं पहले वे अपना जात छुपाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ज्योंहि उनकी जाति के बारे में पता चलता है। उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार शुरू हो जाता है। वह दलित कितना भी पढ़ा लिखा हो उसकी मेरिट को नजरअंदाज कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में दलित पत्रकार हाशिये पर चला जाता है। जो भी हो समाज में व्याप्त वर्ण/जाति व्यवस्था की जड़े इतनी मजबूत है कि इसे उखाड़ फेंकने के लिए एक मजबूत आंदोलन की जरूरत है, जिसके लिए मीडिया को आगे आना होगा और द्विज को दलितों के लिए जगह खाली करनी होगी और यह जब तक नहीं हो तब तक बराबरी की बात करना बेमानी होगी। मीडिया में दलितों को भीख में भी नहीं चाहिये पहले द्विज जगह तो खाली करें, दलित जगह लेने के लिए तैयार हैं। देश भर में पत्रकारिता संस्थानों से हजारों दलित छात्र पत्रकारिता की पढ़ाई कर पत्रकार बन कर सामने आ रहे है।
राष्ट्रीय मीडिया का सर्वे: 2006 पर एक नजर
राष्ट्रीय मीडिया के प्रमुख पदों को लेकर वर्ष 2006 में मीडिया स्टडीज ग्रुप (दिल्ली) के अनिल चमड़िया (स्वतंत्र पत्रकार), जितेन्द्र कुमार (स्वतंत्र शोधकर्ता) और सामाजिक विकास अध्ययन केन्द्र (सीएसडीएस) के सीनियर फेलो योगेंद्र यादव द्वारा एक सर्वे किया गया था। सर्वे में राष्ट्रीय मीडिया में समाचारों से संबंधित फैसले लेने वाले प्रमुख पदों पर स्थापित पत्रकारों की सामाजिक पृष्ठभूमि इस प्रकार पायी गयी थी।
- हिन्दू उच्च जाति पुरुषों का राष्ट्रीय मीडिया पर वर्चस्व है, भारत की कुल आबादी में इनकी हिस्सेदारी 8 प्रतिशत है, लेकिन मीडिया संस्थानों में फैसला लेने वाले पदों का 71 प्रतिशत उनके हिस्से में आता है।
- राष्ट्रीय मीडिया में 17 प्रतिशत प्रमुख पदों पर महिलाएं हैं, महिलाओं की अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति (32 प्रतिशत) अंग्रेजी इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में है।
हिन्दू मुसलमान ईसाई सिख
भारत की आबादी में हिस्सेदारी 81 13 2 2
प्रिंट हिन्दी 97 2 0 0
प्रिंट अंग्रेजी 90 3 4 0
इलेक्ट्राॅनिक हिन्दी 90 6 1 0
इलेक्ट्राॅनिक अंग्रेजी 85 0 13 2
कुल 90 3 4 1

- विभिन्न जातियों के प्रतिनिधित्व में असामनता है, द्विज हिन्दुओं ( द्विजों में ब्राह्मण, कायस्थ, राजपूत, वैश्य और खत्री को शामिल किया गया था ) की जनसंख्या भारत में 16 प्रतिशत है, लेकिन मीडिया के प्रमुख पदों पर उनकी हिस्सेदारी 86 प्रतिशत है, केवल ब्राह्मण ( इसके अंतर्गत भूमिहार और त्यागी भी शामिल किये गये थे) के हिस्से में 49 प्रतिशत प्रमुख पद हैं।
- दलित और आदिवासी फैसला लेने वाले पदों पर नहीं है, राष्ट्रीय मीडिया के 315 प्रमुख पदों पर एक भी दलित और आदिवासी नहीं है।
- राष्ट्रीय मीडिया के प्रमुख पदों पर अन्य पिछड़े वर्ग की हिस्सेदारी 4 प्रतिशत है, जबकि भारत में इनकी आबादी 43 प्रतिशत है।
- मुसलमान महज तीन प्रतिशत पदों पर हैं, जबकि देश की कुल जनसंख्या में इनका हिस्सा 13.4 प्रतिशत है।
ब्राह्मण कायस्थ वैश्य/जैन राजपूत खत्री गैर द्विज उच्च जाति अन्य पिछड़ी जाति
प्रिंट हिन्दी 59 9 11 8 5 0 8
प्रिंट अंग्रजी 44 18 5 1 17 5 1
इले॰ हिन्दी 49 13 8 14 4 0 4
इले. अंग्रेजी 52 13 2 4 4 4 4
कुल 49 14 7 7 9 2 4
- ईसाईयों का औसत प्रतिनिधित्व है, लेकिन मुख्यतः अंग्रेजी मीडिया में राष्ट्रीय मीडिया में 4 फीसदी पद उनके हिस्से में है, जबकि भारत की आबादी में उनका हिस्सा 2 प्रतिशत है।
- राष्ट्रीय मीडिया में महिलाओं की भागीदारी 17 प्रतिशत है, अंग्रेजी मीडिया में अपेक्षाकृत महिलाओं की भागीदारी ठीक है, जबकि अंग्रेजी इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में इनकी भागीदारी संतोषजनक है। इनमें भी दलित महिला पत्रकार नहीं है।
Written by (संजय कुमार) 

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